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१५६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
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ओतप्रोत हो जाते हैं, एक रस हो जाते हैं । इसी का नाम है तत्त्व साक्षात्कार और यही सम्यग्दृष्टि शब्द का अन्तिम तथा एकमात्र अर्थ है' 134 साधना का मूलाधार - सम्यग्दर्शन :
जैन आचार साधना का मूलाधार सम्यग्दर्शन है, जिस पर साधना का सुमनोरम प्रासाद खड़ा किया जा सकता है । यदि मूल में भूल है, सम्यग्दर्शन का अभाव है तो हमारी सारी साधनाएँ निष्फल एवं निष्प्राण हो जाती हैं | आचारांग में स्पष्टतः सम्यग्दृष्टि के जीवन व्यवहार को प्रभावित करने वाले लक्षण बताते हुए कहा है कि 'सम्मतदंसी न करेइ पावं' सम्यग्दृष्टि आत्मा पाप कर्म का आचरण या पाप का बन्ध नहीं करता । उसके विचार से सम्यग्दृष्टि ही जीवनदृष्टि है । व्यक्ति की ( जीवन ) दृष्टि जैसी होती है, उसके अनुरूप ही उसके चारित्र का निर्माण होता है और वह दृष्टि ही उसके जीवन को आध्यात्मिक विकास की ओर ले जाती है । किसी आचरण का सत् होना या असत् होना कर्ता या व्यक्ति की दृष्टि ( सम्यग्दर्शन ) पर निर्भर करता है । यह तो सच है कि सम्यग्दृष्टि फलित होने वाला आचरण सदैव सत् होगा और मिथ्यादृष्टि से निष्पन्न होने वाला आचरण सदैव असत् होगा । सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य या आचरण आकांक्षा-रहित होते हैं । यही कारण है कि उसे पाप का बन्ध नहीं होता ।
वस्तुतः कर्मबन्ध का मूल, आसक्ति या आकांक्षा ही है और सम्यदृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार की आकांक्षा या आसक्ति होती ही नहीं । उसे स्वस्वरूप या आत्मस्वरूप की उपलब्धि के अतिरिक्त सब कुछ निःसार एवं हेय प्रतीत होता है । वह आत्मस्वरूप के प्रति इतना निष्ठावान होता है कि किसी भी विभाव में उसकी आस्था निष्ठ नहीं रह जाती है । शुद्ध आत्मोपलब्धि ही उसकी साधना का लक्ष्य होता है । उस यथार्थदर्शी के समक्ष पौद्गलिक ( जड़ ) पदार्थ कोई मूल्य नहीं रखते । इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्यग्दृष्टि सम्पन्न मनुष्य पापकर्म के बन्धन से अपने को निवृत्त कर लेता है, अर्थात् उसका जीवन आत्माभिमुखी हो जाता है । वह कहीं भटकता नहीं है, कहीं अटकता नहीं है, पथ भ्रष्ट नहीं होता, अपितु अपने साध्य की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है । उसे अपनी आत्मा की अमरता और अजेय शक्ति पर अटूट विश्वास होता है । वह अपनी आत्मा को विस्मृत कर कोई भी अप्रिय आचरण नहीं करता । वह यथार्थद्रष्टा होता है । उसके अन्त:
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