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आचारांग का मुक्तिमार्ग : १५७ करण में सदैव सत्य की ज्योति जलती रहती है। आचारांग के विचार से सत्य ही जीवन का सारभूत तत्त्व माना गया है । सत्य की आराधना उसके जीवन का ध्येय होता है। सत्य की उपासना करने वाले सम्यग्द्रष्टा के लिए मिथ्याश्रुत भी सम्यकश्रुत बन जाता है । अतः आचारांग का 'सम्मतदंसी न करेह पावं' भी एक रहस्यपूर्ण सूत्र है। सम्भवतः यह बात या तो उस भूमिका पर स्थित व्यक्ति के लिए कही गई है जहाँ 'समत्व' चरम सीमा पर पहुंच जाता है या फिर जहाँ से वीतरागता की भूमिका प्रारम्भ हो जाती है। एक समत्व की तलहटी है तो दूसरा शिखर । परन्तु है दोनों समत्व । जो वीतरागता के अन्तिम स्तर या चरम शिखर पर पहुंच चुका है वह कोई पापकर्म नहीं करता और जो उस अन्तिम स्तर पर पहुंचने की या उस शिखर पर चढ़ने की तैयारी कर रहा है वह भी कोई पापकर्म नहीं करता। इसका आशय इतना ही है कि उस साधक के अन्तःकरण में कोई पापकर्म न करने का संकल्प जागृत हो जाता है । वह उस संकल्प के साथ अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है । अन्तिम स्तर पर पहुंचकर उसकी समची पापवृत्तियाँ छट जाती हैं। अन्ततः वह पूर्ण वीतरागी या निष्कामी बन जाता है। वास्तव में सम्यग्दृष्टि आत्मा की आन्तरिक स्थिति 'जहा पोम्म जले जागं नोव लिप्पइ वारिणा'3 के समान होती है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगबिन्दु में इसका संक्षिप्त एवं सारगर्भित चित्रण प्रस्तुत किया है। उनके विचार से-'मोक्षे चित्तं तनुर्भवे' अर्थात् सम्यग्दृष्टि का मन ( चित्त ) मोक्ष में और तन संसार में होता है। वस्तुतः सम्यग्दृष्टि की मनोवृत्ति संसारातीत होती है। वह गृहस्थ जीवन में रहकर सांसारिक दायित्वों को निभाने पर भी पाप से लिप्त नहीं होता। यही कारण है कि आचारांग में इस बात पर बल दिया गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव कषाय से प्रेरित होकर कोई पापकर्म नहीं करता और न पापाचरण की आन्तरिक वृत्ति ही उसमें जागृत होती है। ___ आचारांग में यह भी कहा है कि बोधि-सम्पन्न साधक के लिए पूर्ण सत्यप्रज्ञ अन्तःकरण से पापकर्म अकरणीय होता है ।३७ इससे यह स्पष्ट होता है कि आचारांग की दृष्टि से साधना-मार्ग पर अग्रसर होने के लिए सम्यग्दर्शन ( बोधि-सम्पन्न ) होना अनिवार्य है। परन्तु वह दर्शन प्रज्ञा प्रसूत होना चाहिए। आचारांग में स्पष्ट कहा है कि जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ ही मुनित्व है ।३८ मुनित्व की साधना ही समत्व या सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होती है। आचारांग के साधनामार्ग में श्रद्धा तत्त्व भी महत्त्व
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