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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : १३३ को पूर्णरूप से समाप्त कर दिया जाए, उपेक्षित कर दिया जाए। वस्तुतः संयम-साधना एवं लोक-मंगल दोनों के लिए इस देह और इन्द्रियों की उपयोगिता है। भौतिक शरीर और इन्द्रियाँ आध्यात्मिक जीवन में बाधक नहीं, साधक हैं। उन्हें साधा जाए, मारा न जाए।
प्रश्न यह है कि क्या इस जीवन में सर्वथा इन्द्रिय निरोध या संयम संभव है ? गम्भीरतापूर्वक सोचा जाय तो इस जोवन में इन्द्रियों का पूर्णतया निरोध करना सम्भव नहीं है । इन्द्रियों द्वारा अपने विषयों के प्रति आकृष्ट होना मनोवैज्ञानिक तथ्य है। आचारांग भी इस मनोवैज्ञानिक धारणा को स्वीकार करता है। वह कहता है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होने पर उन्हें उनके अनुभव से वंचित कर पाना अस्वाभाविक तथ्य है। तो फिर, प्रश्न उठता है कि आचारांग में इन्द्रिय-निरोध या संयम का क्या अभिप्राय है और वह आधुनिक मनावैज्ञानिक मान्यताओं से कहाँ तक सहमत है ? इस पर विचार करना आवश्यक है। ____ आचारांग में इन्द्रिय निरोध का अर्थ ऐन्द्रिक अनुभवों में निहित राग द्वेषात्मक वृत्तियों के उन्मलन से है। कर्णेन्द्रिय के निरोध का यह अर्थ नहीं है कि शब्द न सुना जाय । साधक शब्द को सुने किन्तु उसमें रागद्वेष न करे। इससे श्रोत्रेन्द्रिय का संयम सधता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों का भी संयम संभव है । इन्द्रिय-विषयों में चित्त का लिप्त न होना ही वास्तविक संयम है। । प्रस्तुत विषय पर आचारांग में प्रतिपादित विचार आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उचित हैं। सूत्रकार कहता है-जीवन में यह शक्य नहीं है कि श्रोत्रेन्द्रिय के समक्ष आए हुए प्रिय-अप्रिय शब्द न सुने जाएँ, परन्तु उन्हें सुनने से जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है उनका भिक्षु को परित्याग कर देना चाहिये। यह सम्भव नहीं है कि चक्ष के समक्ष आने वाला मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप दिखाई न दे। अर्थात्, चक्ष के समक्ष आया हुआ रूप अदृष्ट नहीं रह सकता, वह तो अवश्य दिखाई देगा। अतः रूप का नहीं, किन्तु रूप को देखने से जागृत होने वाले राग-द्वेष का भिक्ष परित्याग कर दे। यह सम्भव नहीं है कि नासिका को अच्छी या बुरी गन्ध का अनुभव न हो परन्तु गन्ध से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का भिक्षु त्याग कर दे। यह शक्य नहीं है कि जिह्वा पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस अनास्वादित रह जाए किन्तु रस के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का भिक्षु परित्याग कर दे। इसी तरह यह भी सम्भव नहीं है
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