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१३४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन कि शरीर को कठोर या कोमल स्पर्श की अनुभति न हो, किन्तु मुनि को स्पर्श से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का सर्वथा त्यागकर देना चाहिए।९४
जब तक शरीर और इन्द्रियाँ हैं तब तक इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति होती है। आत्मा पाँचों इंद्रियों के माध्यम से मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को ग्रहण करता है, किन्तु उसे प्रिय या अप्रिय इन्द्रिय विषयों में राग-द्वेष नहीं करना चाहिए ।१५ इन्द्रियों द्वारा ही मनुष्य बाह्य जगत् से सम्पृक्त है । बाह्य-जगत् भी वास्तविक है । साधना की प्रक्रिया में किसी के अस्तित्व को चुनौती नहीं दी जाती, किन्तु अपने प्रति वीतरागता या जागरूकता उत्पन्न की जाती है। इसी प्रक्रिया को संयम या निरोध कहा जाता है। संयमन के द्वारा बाह्य-जगत् के साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है और रागात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाने पर ये इन्द्रियाँ साधक जीवन में बाधक या अनर्थकारी सिद्ध नहीं हो सकतीं। देखना-संघना तो इन्द्रियों का स्वाभाविक धर्म है । सूत्रकार का स्पष्ट निर्देश है कि साधु कहीं भी अवस्थित रहे, किन्तु अनासक्तिपूर्वक रहे । धर्मशालाओं, उद्यानों, गृहस्थों के घरों में या परिव्राजकों में,मठों में, अवस्थित श्रमण-श्रमणी स्वादिष्ट अन्नबल अथवा केसर-कस्तूरी आदि की गन्ध को सूचकर सुवासित पदार्थों के आस्वादन की कामना न करें। साथ हो, आसक्त होकर गन्ध को न सूघे । ९६ पुनः कहा गया है कि संयमशील साधु-साध्वी मनोज्ञ-अमनोज्ञ अनेक प्रकार के शब्दों को सुनते हैं, रूपों को देखते हैं किन्तु वे उन शब्दों एवं रूपों को सुनने और देखने की कामना से वहाँ जाने-आने का संकल्प न करें तथा उनमें आसक्त और मूच्छित भी न हों ।९७ ___इससे यह सिद्ध होता है कि आचारांग के अनुसार कामना (संकल्प) ही समग्र पापों का मूल है । गीता शांकरभाष्य,९९ मनुस्मृति एवं महानिद्देसपाली१०० में भी कहा है कि निश्चित रूप से काम का मूल संकल्प ही है। इसी तथ्य को महाभारत में भी दुहराया गया है । १०१ अतः साधक को इससे बचना चाहिए। यदि मन में संकल्प न किया जाय तो वासनाओं के उत्पन्न होने या बढ़ने का कोई कारण नहीं रहता । 'दिटठेहिं निव्वेयं गच्छिज्जा' सूत्र के द्वारा सूत्रकार का यही निर्देश है कि साधक इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्त रहे,१०२ क्योंकि उनमें आसक्त होने से अनुकूल के प्रति राग-भाव और प्रतिकूल के प्रति द्वेष-भाव उत्पन्न
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