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१३२ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
और संयम का आचरण कर । ७७ यद्यपि मोक्षगामी वीर पुरुषों का यह मा अर्थात् संयमानुष्ठान - विधि अत्यन्त दुष्कर है ।" यहाँ यह स्मरणीय है कि यद्यपि यह तपनुष्ठान, संयम-नियम-चर्या, बाह्य विषयों का त्याग, प्रारम्भिक भूमिका में प्रविष्ट साधकों को अथवा जिनका मन विरक्त नहीं हुआ है उन्हें कठोर अवश्य लगता है, तथापि अग्रिम भूमिकाओं में वही चर्या सहज हो जाती है । सहज भाव में कोई दुष्करता एवं स्खलना नहीं होती । उत्तराध्ययन में कहा है जिसकी लौकिक प्यास ( पिपासा ) बुझ चुकी है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । "
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आचारांग के समान परवर्ती जैनागमों- उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग", स्थानांगर, मूलाचार, प्रवचनसार 3, शीलपाहुड ४, दशवैकालिक बृहत्कल्प, , योगशास्त्र, ७ एवं ज्ञानसार" में भी इन्द्रियनिग्रह या संयम पर काफी बल दिया गया है । अथर्ववेद, " गीता, १० मनुस्मृति" और बौद्धग्रन्थों में भी ऐसे ही विचार प्रतिपादित हैं । पाश्चात्य सत्तावादी विचारक भी संयमी जीवन पर जोर देते हैं । इरविंग बेबिट कहता है कि हममें जैविक प्रवेग तो बहुत है किन्तु आवश्यकता है जैविक नियंत्रण की १३ । दमन की मनोवैज्ञानिकता :
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साधना का लक्ष्य है-मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति । इस साधना के दो रूप हैं - बाह्य - साधना और अन्तरंग साधना । आन्तरिक साधना में मन को साधकर निष्काम, निराकुल, निर्विकार और निर्विषय किया जाता है जबकि बाह्य साधना में शरीर और इन्द्रियों को तपाकर कर्म - मल (रज) दूर किया जाता है । आचारांग में बाह्य साधना के रूप में श्रमण जीवन के लिए काय- क्लेश रूप तप त्याग, संयम, परीषह-सहन आदि कठोरतम साधना का विधान है । वह देहोत्पीड़न ( काय - क्लेश ) पर बहुत जोर देता है । आचारांग में कहा है कि काया को कसो, उसे जीर्ण शीर्ण करो, मांस और शोणित को कम करो । तात्पर्य यह है कि वह देह-दमन
CTET है । इन्द्रिय - निग्रह पर बल देता है । किन्तु क्या आचारांग यह सिखाता है कि जीवन को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाय ? क्या श्रमण-चर्या शरीर और इन्द्रियों को कुचल डालने या सुखा डालने की साधना है ? इस प्रश्न पर गहराई से अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि देह और इन्द्रियों को उत्पीड़ित करना, उन्हें नष्ट कर डालना आचारांग का उद्देश्य नहीं है । उसके अनुसार आध्यात्मिक जीवन की स्वीकृति का यह अर्थ कदापि नहीं है कि इस भौतिक देह और इंद्रियों
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