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नैतिक प्रमाद और आचारांग : १११ (निरावरण) होकर जानता-देखता है । १3८ इस स्थिति में उसे विशुद्ध द्रव्यात्मा की उपलब्धि हो जाती है। फिर उस कर्म मुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता।13९ आचारांग के अनुसार यही अहिंसक तथा निरावरण द्रष्टा का दर्शन है । १४० आचारांग में कषायात्मा का त्याग और द्रव्यात्मा की उपलब्धि के सम्बन्ध में गहन चिन्तन है ।१४१ यह भी कहा है कि साधक कोपादि कषायों को क्षीण कर निश्चल ( स्थिर ) हो जाए।१४२ उसमें कषायात्मा के त्याग पर बार-बार इसलिए बल दिया है कि वह शुद्धात्मा की प्राप्ति में बाधक हैं। कषायों की उपस्थिति में योगों में स्थिरता भी नहीं आती । अतएव पूर्णतावाद और आचारांग अधिक निकट है। ___ जिस प्रकार पूर्णतावाद यह स्वीकार करता है कि अपने अन्दर निहित अव्यक्त क्षमताओं को पहचान कर उन्हें पूर्णतया विकसित करने का प्रयास करना चाहिए उसी प्रकार आचारांग भी आत्म-स्वरूप को पहचान कर अपनी क्षमतानुसार आत्मपूर्णता के लिए वैयक्तिक रूप से जागरूक रहने तथा सतत् पुरुषार्थ करने पर बल देता है। इस सन्दर्भ में वह मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार करता है। उसके अनुसार आत्म-स्वरूप को पहचान कर तदनुरूप उस दिशा में सतत् पुरुषार्थ या साधना करने का एक मात्र उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति ही है और मोक्ष, आत्मपूर्णता की स्थिति है । वस्तुतः आत्मा या चेतना का जो स्वस्वभाव है. उसे प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है। इस प्रकार आचारांग की दृष्टि से आत्म-पूर्णता का अभिप्राय हमारे अन्दर रही हुई बीज रूप क्षमताओं या शक्तियों को पूर्ण विकसित कर लेने से है और ये बीजरूप क्षमताएं सतत् साधना एवं परिश्रम के द्वारा ही पूर्णतः प्रकटित हो सकती हैं । कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष को अपने परम सत्य के प्रति कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिए अपितु उसे वीर (पराक्रमी), अप्रमत्त और आत्मगुप्त होकर सतत् पुरुषार्थ करना चाहिए ।१४३ ___ इस प्रकार आचारांग के विचार से नैतिक व्यक्ति स्वस्वभाव से सम्बद्ध है और वह उस स्वस्वभाव को प्राप्त करने के लिए सतत् प्रयास करता रहता है । वस्तुतः आचारांग की मान्यता के अनुसार पूर्णात्मा वनने के लिए आत्मजागरूकता और अथक पुरुषार्थ आवश्यक है। ____ अन्तर्दृष्टि जाग जाने पर भी साधक को सदा सावधान रहना चाहिए । इस बात को दृष्टिगत रखकर सूत्रकार कहता है कि साधक को चाहिए कि वह सतत् अप्रमत्त ( जागरूक ) रहते हुए पुरुषार्थ करने में
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