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________________ ११० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्यनन रखते हैं, इस सन्दर्भ में सूत्रकार कहता है कि विपुल ज्ञानी विपुलदर्शी, उपशान्त सम्यक् प्रवृति करने वाले ज्ञानादि गुणों से युक्त एवं इन्द्रियजयी पुरुष अपनी अध्यात्म साधना में बाधा उत्पन्न करने वाले परीषह विशेष रूप से स्त्रीपरीषह के प्रसंग उपस्थित होने पर अपनी आत्मा को अनुशासित करते हैं अर्थात् ब्रह्मचर्य से विचलित करने के लिए उपस्थित स्त्री आदि को देखकर अपने मन में पर्यालोचन करते हैं कि आत्मन 'क्रिमेस जणोकरिस्सति ? एस से परमारामो जाओ लोगंसि इथिओ१३४ यह जन स्त्री मेरा क्या कर लेगा? यद्यपि लोक में जितनी स्त्रियां हैं वे परम आराम रूप हैं ( अर्थात् मोहोदय का मूल कारण हैं) किन्तु मैं तो सहज सुखी हूँ वे मुझे क्या सुख दे सकती हैं ? ___ इस प्रकार ज्ञानी अपने सम्यग्ज्ञान के द्वारा विषम परिस्थितियों में भी अपने आपको संयमित तथा सन्तुलित बनाए रखता है । वह राग से अनुरक्त होता है और न द्वेष-दिष्ट । वह आत्मविद् मुनि शब्दादि विषयों को इतना परिष्कृत कर लेता है कि उनसे तनिक भी प्रभावित नहीं होता, अपितु उनके बीच रहकर भी सदा निलिप्तता का अनुभव करता है ।१३५ कहा गया है कि जो अपनी प्रज्ञा से लोक के स्वरूप को जानता है वही मुनि कहलाता है और वह संग (आसक्ति) को स्रोत ( जन्म मरण चक्र के उद्गम ) के रूप में देखता है । १३६ यहां 'मुनि' शब्द का प्रयोग 'ज्ञानी' के अर्थ में आया है, क्योंकि यह शब्द प्राकृत की ज्ञानार्थक 'गुण' धातु से निष्पन्न है । आचारांग की साधना पद्धति से जानने-देखने या साक्षी भाव को महत्त्वपूर्ण माना गया है । जानना-देखना सम्पुष्ट होने पर धीरे-धीरे आसक्ति या विषय-वासनाएं अपने आप क्षीण होती चली जाती हैं। इस प्रकार आचारांग के विचार से ज्ञानी पुरुष आत्मगुप्त ( संयमित ) होकर सदा संयम-साधना में विचरण करता है। आचारांग भी यह मानता है कि आत्म-त्याग के द्वारा आत्म-लाभ सम्भव है अर्थात् कषायात्मा के त्याग से ही विशुद्ध द्वव्याल्मा को उपलब्धि होती है । आचारांग में विषय-कषाय एवं आसक्ति-त्याग का तथ्य ज्ञनादिगुणों की प्राप्ति का पदे-पदे निर्देश है । इन्द्रियों को वहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर निष्कर्म बनने का उपदेश है।१३७ यह भी कहा है कि राग -द्वेष, विषय -कषाय रूप आवर्त स्रोतों का सम्यक्तया निरीक्षण कर ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो जाए। स्रोतों ( इन्द्रिय-विषयों) का त्याग कर निष्क्रमण करने वाला महान् साधक कर्मावरण रहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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