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________________ नैतिक प्रमाद और आचाराङ्ग : १०९ नैतिक साध्य के सन्दर्भ में आचारांग आत्म-पूर्णता (चेतना के ज्ञान, भाव एवं संकल्प इन तीनों के पूर्ण प्रकटन ) को स्थान देता है। यहाँ पूर्णतावाद एवं आचारांग द्वारा प्रतिपादित सामान्य तत्त्वों का तुलनात्मक विचार अपेक्षित है। जिस प्रकार पूर्णतावाद आत्म-सिद्धि के लिए प्रज्ञा एवं भावना दोनों को समान महत्त्व देता है उसी प्रकार आचारांग में भी नैतिक साध्य की उपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार के लिए चेतना के दोनों पक्षों को समान रूप से स्वीकार किया गया है । कहा गया है कि त्रिविध पुरुष परम ( मोक्ष ) को जानकर ( हिंसादि में आतंक देखता है ) जो ( हिंसादि में ) आतंक देखता है वह पापकर्म या अनैतिक आचरण नहीं करता। वह अग्र और मूल का विवेक कर आत्मदर्शी ( आत्मद्रष्टा ) बन जाता है ।२९ ___यहाँ 'परम' का अर्थ सत्य मा मोक्ष है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र भी परम के साधन होने के कारण परम कहे गये हैं। अतः परम का ज्ञाता पुरुष पाप का अनुबन्ध न करता है न करवाता है और न करने वाले का अनुमोदन करता है। 130 सूत्रकार कहता है कि हे धीर पुरुष! तू इस प्रकार ( जागरूकता, ज्ञान, सहिष्णुता, मैत्री, करुणा, दया आदि) के सदाच रण के द्वारा सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जायेगा ।१३१ जिस प्रकार पूर्णतावाद नैतिक साध्य की प्राप्ति के लिए प्रज्ञात्मक या ज्ञानात्मक आत्मा के द्वारा इन्द्रियमय आत्मा का संयमन एवं परिमार्जन आवश्यक मानता है, उसी प्रकार आचारांग भी इस बात पर बल देता है कि निम्न आल्मा (विषय-कषायात्मा) को ज्ञानात्मा से अनुशासित होना चाहिए। यही कारण है कि आचारांग में स्थान-स्थान पर राग-द्वेष, विषय-कषाय,प्रमाद, आसक्ति आदि के पूर्ण संयमन एवं निग्रह पर बल दिया गया है। वह राग या वासना के पूर्ण परिमार्जन, परिष्करण या उदात्तीकरण का पक्षधर है, उसके कुचल डालने का नहीं । सूत्रकार कहता है कि त्रिविध ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह अपने अन्तर्मन को विषाय-कषयों की अग्नि से प्रज्ज्वलित न होने दे । १३२ क्योंकि विषयकषायों की उपस्थित में धर्म की उपलब्धि सम्भव नहीं हो सकती है । आचारांग में कहा है कि जिन पुरुषों की कषाय या देहासक्ति मृत जैसी होती है, वे ही पुरुष धर्म के यथार्थ स्वरूप को जान पाते हैं और धर्म के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले पुरुष ही ऋजु या ज्ञानी कहलाते हैं । १33 ज्ञानी पुरुष अपनी निम्न आत्मा को किस प्रकार संयमित ओर जागरूक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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