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नैतिक प्रमाद और आचाराङ्ग : १०७
आचारांग में कहा है कि जो अनन्य ( चैतन्य स्वरूप ) को देखता है वह अनन्य ( चैतन्य स्वरूप ) में रमण करता है । १२६ रत्नत्रय की भाषा में कह सकते हैं कि आत्मा को जानना सम्यग्ज्ञान, आत्मा को देखना सम्यग्दर्शन और आत्म-रमण करना सम्यक चारित्र है।
उपर्युक्त सूत्र से दर्शन और चारित्र का स्पष्ट दर्शन होता है, परन्तु यहाँ दर्शन में ज्ञान अन्तर्भूत है, क्योंकि दोनों सहभावी हैं । इस प्रकार आचाराङ्ग चेतना या आत्मा के तीनों पहलुओं पर समान बल देता है जबकि काण्ट इन तीनों की चर्चा नहीं करता है । यहाँ आचाराङ्ग काण्ट के विचारों से पुनः पृथक पड़ जाता है।
काण्ट के सिद्धान्त को कठोरतावाद भी कहा जाता है। वह मनुष्य के नैतिक जीवन में भावात्मक तत्त्व को नितान्त अस्वीकार करता है अर्थात् उसके अनुसार ऐसा कोई भी कर्म नैतिक नहीं हो सकता जो भाव या संवेग से सम्प्रेरित होता हो । यहाँ तक कि उसके अनुसार श्रद्धा-आस्था दया-प्रेम, करुणा, क्षमा आदि से प्रेरित कोई भी आचरण नीति सम्मत नहीं है। दूसरे, उसे अपने नैतिक नियमों में किसी तरह का अपवाद-मार्ग स्वीकार्य नहीं है। वह कहता है कि बौद्धिक नियम, नैतिक नियम है और नैतिक नियम उस सिद्धान्त को प्रस्थापित करता है जिसमें अपवाद या आपद्धर्म के लिए तनिक भी स्थान नहीं है। इस प्रकार वह भावना एवं अपवाद मार्ग को पूर्णतः अस्वीकार कर देने के कारण अपने आचरणशास्त्र को आवश्यकता से अधिक कठोर बना देता है और इन्हीं कारणों से उसकी नीति बहुत शुष्क एवं कठोर हो जाती है।
आचारांग में भी कठोरतावाद के दर्शन होते हैं। उसमें श्रमणजीवन के लिए कठोरतम नियमों का विधान है। कठोरतम नियमों के विधान के वावजूद उसमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार अपवाद मार्ग का भी विधान है। साथ ही, आचारांग हमें भावपक्ष-जैसे दया, क्षमा, करुणा, श्रद्धा, सत्य, शील, सन्तोष, आत्म-संयम, दृढ़ संकल्प आदि सदगणों या सद्भावों के विकास का पाठ सिखाता है। उसे कठोरतावाद इसी रूप में कहा जा सकता है कि उसका आचार-विधान, तप एवं ध्यान-मार्ग अतीव कठोर है । वह देहोत्पीड़न एवं इन्द्रियों को सुखा डालने तक की बात कहता है। सामान्यजन के लिए उन कठोर आचार-नियमों का सम्यक्रूपेण पालन करना बड़ा कठिन है। आचारांग१२७ में तप एवं ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कल्याणात्मा को जीर्णशीर्ण एवं सुखा डालने की बात कही गई है । कठोर तपश्चरण के द्वारा
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