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१०६ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन कोण से नितान्त असमोचीन प्रतीत होता है, क्योंकि यह मन को दूषित बना देता है। इन कामनाओं को दबाने के बजाय उनका ऊर्वीकरण करना चाहिए। उत्तराध्ययन १२3 एवं धम्मपद १२४ में भी उर्वीकरण सम्बन्धी विचार उपलब्ध होते हैं।
काण्ट कहता है कि शुभ-संकल्प या परम आदेश परिस्थिति विशेष पर अबलम्बित नहीं हैं । शुभ संकल्प सदैव शुभ होगा । वह परिस्थिति विशेष में अशुभ नहीं हो सकता। परिस्थितिजन्य आदेश कारण सापेक्ष आदेश हैं। वह अपने आचार-दर्शन में नैतिकता के दोनों रूपों को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है । वह केवल निरपेक्ष नैतिकता पर ही पूरा बल देता प्रतीत होता है । उसने अपने नैतिक नियमों में न तो आपवादिक मार्ग को स्थान दिया है और न उसकी सापेक्षता को ही स्वीकार किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर आचारांग और काण्ट के विचारों में थोड़ा मतभेद है जबकि आचारांग में नीति के निरपेक्ष एवं सापेक्ष दोनों पक्ष उपलब्ध हैं तथा उनमें औसगिक-आपवादिक मागं की भी चर्चा की गई है। ___ काण्ट जीवनके ज्ञानात्मक पहलू पर ही बल देता है । विशुद्ध विवेकमय जीवन ही काण्ट के सिद्धान्त का परम आदर्श है। वह अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में आत्मा के भावात्मक पक्ष की पूर्णतः अवहेलना करता है।
तुलनात्मक दृष्टि से आचारांग की ओर दृष्टिपात करने पर यह कहा जा सकता है कि उसमें भी ज्ञानपक्ष अर्थात् केवल ज्ञान को नैतिक जीवन का साध्य माना गया है। यद्यपि आचारांग में स्पष्ट रूप से सीधे सीधे कहीं केवलज्ञान या 'केवल' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु अणेलिसन्नाणि णाणी, जोगं च सव्व सा णच्चा सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं१२५ जैसे शब्दों द्वारा उसे स्पष्ट किया गया है। इससे स्पष्ट है कि आचारांग की रचना के समय ऐसे पारिभाषिक शब्दों का निर्माण नहीं हुआ था। ___ इस प्रकार दोनों में वैचारिक समानता दृष्टिगत होती है, परन्तु साथ ही, आचाराङ्ग चेतनामें भावात्मक एवं संकल्पात्मक (दर्शन और चारित्र) पक्ष की भो उपेक्षा नहीं करता है। उसमें नैतिकता को परिपूर्णता के लिए अन्तदर्शन, अनन्तचारित्र एवं अनन्तसौख्य को महत्त्वपूर्ण माना गया है अर्थात् इन तीनों की समन्वित उपस्थिति को ही नैतिक जीवन कां चरम आदर्श माना गया है ।
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