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१०४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन स्वार्थ का साधन बनाता है तो वह कर्म भी अनैतिक ही कहा जायगा। यह सूत्र भी काण्ट के प्रथम सूत्र की भाँति ही सद्गुण-दुगुण या शुभाशुभत्व का प्रतिमान है।
आचारांग में भी काण्ट की उपर्युक्त मान्यता के अनुरूप विचार उपलब्ध होते हैं । उनमें कहा है कि ‘णो अत्ताणं आसा एज्जा णो परं असाएज्जा'१५ साधक को चाहिए कि वह न तो अपनी आत्मा की आशातना या अवहेलना करे और न दूसरों में प्रतिष्ठित आत्मा की अवहेलना करे। यदि हम कोई ऐसा आचरण करते हैं जिसमें हमारी आत्मा अथवा दूसरों की आत्मा की अवज्ञा होती है तो निश्चित ही वह कर्म अनैतिक होगा। यह सूत्र हमें कर्म के शुभाशुभत्व को परखने को दृष्टि देता है। सरल शब्दों में यह कह सकते हैं कि हम अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए किसी व्यक्ति या जीव को साधन बनाकर अपना स्वार्थ साध लें तो वह आचरण अनुचित होगा और यदि हम उसकी स्वार्थ पूर्ति का साधन बन जाँय अथवा वह हमें अपनी स्वार्थ-सिद्धि का साधन बनाकर अपना काम साध लें तो वह भी अनैतिकता ही होगा। इतना ही नहीं, अपितु आचारांग काण्ट से भी एक कदम आगे जाकर जगत् के समस्त प्राण, भूत, सत्त्व और जीवों की अवहेलना नहीं करने पर बल देता है । ११६ सबको आत्मौपम्य की दृष्टि से देखने की बात कहता है। सूत्रकार कहता है कि न तो अपनी आत्मा का अपलाप ( निषेध ) कर और न लोक की आत्मा का अपलाप ( निषेध) करें, क्योंकि जो अपनी आत्मा का अपलाप करता है वह लोक की आत्मा का अपलाप करता है और जो लोक की आत्मा का अपलाप करता है वह अपनी आत्मा का अपलाप करता है । १७
__काण्ट के उपर्युक्त सूत्र में सबके प्रति समान एवं मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने का भाव अन्तर्निहित है । आचारांग, भी तुल्य व्यवहार के रूप में इस विचार का समर्थन करता है। वही व्यक्ति आत्म-अभ्युदय कर सकता है, जो अपनी और विश्व की समस्त आत्माओं की वेदना को समान जानकर उनके प्रति तुल्यता का व्यवहार करता है ।११८ (४) स्वतंत्रता का सूत्र :
काण्ट का स्वतंत्रता का सूत्र उसके प्रथम सूत्र में अन्तर्भूत व्याख्या का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता है। इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता का या समानता का अधिकार है । हमें किसी परम शुभ की प्राप्ति हेतु अपने संकल्प का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र होना
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