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नैतिक प्रमाद और आचाराङ्ग : १०३ को कर्म के शुभाशुभल्व के मूल्यांकन का आधार माना है । उनके अनुसार नैतिकता इस बात पर निर्भर करती है कि जीव कितना निज स्वभाव में स्थित है, जितनी निज स्वभाव में अवस्थिति है उतनी ही नैतिकता है और जितनी परभाव, परद्रव्य या परपर्यायों में अवस्थिति है उतनी ही अनैतिकता है अर्थात् जब जीव ज्ञाता-द्रष्टा रूप आत्म-स्वभाव में सुस्थित रहता है तब वह स्वसमय हैं और जब वह मोह, राग-द्वेष वश परद्रव्य, पौद्गलिक पर्यायों अथवा विभाव दशा में रत रहता है, तब उसे परसमय कहा जाता है।
गीता में भी इस स्वभाव को नैतिक प्रतिमान के रूप में स्वीकार करते हुए यह कहा है कि ज्ञानवान अपनी प्रकृति के अनुरूप ही कर्म करते हैं । सभी प्राणी अपने स्वभाव की ओर जा रहे हैं । १५3
इस प्रकार आचारांग१४ के अनुसार समता ही आत्मा या चैतन्य का शुद्ध स्वभाव है और विषमता विभाव है। समता से निष्पन्न आचरण सदाचरण है और विषमता से निःसृत आचरण असदाचरण है । आचारांग में नैश्चयिक ( वैयक्तिक ) दृष्टि से समता को ही सदाचार या नैतिकता का प्रतिमान स्वीकार किया गया है। इस तरह काण्ट के नीतिशास्त्र और आचारांग दोनों में स्वस्वभाव के रूप में समभाव पर बल दिया गया है। (३) स्वयं साध्य का सूत्र: ___ काण्ट का तृतीय सूत्र यह है कि इस प्रकार कर्म करो जिससे समस्त मानवता को, चाहे वह तुम्हारे व्यक्तित्व के रूप में हो या किसी अन्य व्यक्ति के रूप में हो, सदैव साध्य समझो, साधन नहीं । यह आदेश झूठ, चोरी, धोखा, शोषण, चापलूसी आदि का निषेध करता है। इसका सरल आशय यह है कि अपने सहित समस्त मानव-मात्र के प्रति कभी भी साधन के रूप में नहीं, अपितु साध्य के रूप में ही व्यवहार करो । उदाहरण के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि कोई व्यक्ति न तो दूसरे की चीज चुरा सकता है और न दूसरे के द्वारा स्वयं का माल चुराने के लिए अनुमति दे सकता है। इस सूत्र के अनुसार दोनों ही वजित हैं क्योंकि एक में दूसरा और दूसरे में पहला ही व्यक्ति साधन बन जाता है। मानवता स्वयं साध्य है। न तो हमें दूसरे के हित का साधन बनना है और न दूसरों को अपने हित का साधन बनाना है। यदि मनुष्य स्वयं अपनी आत्मा को दूसरे के हाथ की कठपुतली बनाता है तो उसका आचरण अनैतिक ही कहा जायगा और यदि दूसरों की आत्मा को अपने
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