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________________ नैतिक प्रमाद और आचाराङ्ग : १०१ उसी समय इच्छा कर सको कि यह एक सार्वभौम विधान होने वाला हो । (२) प्रकृति विधान का सूत्र : ऐसा करो कि मानो तुम्हारे कर्म का नियम तुम्हारी इच्छा के माध्यम से प्रकृति का एक सार्वभौम विधान होने वाला हो। ( ३ ) स्वयं साध्य का सूत्र : ऐसा करो जिससे अपने व्यक्तित्व में प्रत्येक अन्य पुरुष के व्यक्तित्व में निहित मानवता को तुम सदा एक ही समय साध्य के रूप में प्रयोग करो, कभी साधन के रूप में नहीं। (४) स्वतत्रता का सूत्र : ऐसा करो कि तुम्हारी इच्छा उसी समय अपने नियम के माध्यम से अपने को सार्वभौम विधान बनाने वाली समझ सके । (५) साध्यों के राज्य का सूत्र : तुम सदा अपने नियम के माध्यम से साध्यों के एक सार्वभौम राज्य के विधायक सदस्य हो ।९७ काण्ट की उपर्युक्त नीति-शास्त्रीय मान्यताएं आचारांग में कहां तक मान्य रही हैं तथा दोनों के विचारों में कितना सामंजस्य है, इस सम्बन्ध में तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है । (१) सार्वभौमविधान सत्र : ___काण्ट के इस सूत्र के अनुसार कोई भी कर्म तभी नैतिक माना जा सकता है, जबकि वह उसी समय सार्वभौम या सामान्य नियम बन जाने की क्षमता रखता हो । यदि वह सामान्य या सार्वभौम नियम बन सकता है तो वह शुभ है, अन्यथा अशुभ है। इसके व्यवहारिक रूप को समझाने के लिए काण्ट शपथ तोड़ने का उदाहरण प्रस्तुत करता है । यदि शपथ तोड़ने को एक सामान्य नियम बना दिया जाय-प्रत्येक व्यक्ति शपथ तोड़ने लगे तो फिर शपथ लेने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। इसी तरह झूठ, चोरी, बेईमानी आदि को भी सामान्य-नियम नहीं बनाया जा सकता । इस दृष्टि से ये सभी कर्म अनुचित हैं । काण्ट के इस सूत्र का मन्तव्य यही है कि जो सार्वभौम नियम बन सकता है वही कर्म आचरणीय या नैतिक है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर कहा जा सकता है कि काण्ट का सार्वभौम विधान-सूत्र आचारांग में अहिंसा-सिद्धान्त के रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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