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१०० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन बुद्धिपरतावाव और आचाराङ्ग : ____ सुखवाद आत्मा के भावनात्मक पक्ष पर जोर देता है और बुद्धिपरतावाद आत्मा के बौद्धिक पक्ष पर । काण्ट, विशुद्ध बुद्धि प्रधान या बौद्धिक जीवन का पक्षधर है, जिसमें वासनाओं, भावनाओं, इच्छाओं, संवेगों अथवा इन्द्रियपरता का कोई स्थान नहीं है। पश्चिम के इस वैराग्यवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन प्राचीन काल में कठोर तपश्चर्यावाद के रूप में सिनिक्स ने, विरक्तिवाद के रूप में स्टोइक्स ने, संन्यासवाद के रूप ईसा ईधर्माचार्यों ने किया था। वर्तमान युग में इस सिद्धान्त को काण्ट ने बुद्धिपरतावाद के रूप में प्रस्तुत किया है।
काण्ट का विचार है कि बौद्धिक संकल्प या सदिच्छा (Good-Will) ही जीवन का परम शुभ है । सदिच्छा का अर्थ सद्भावना नहीं, बल्कि कर्तव्य बुद्धि है । सदिच्छा बौद्धिक है और वह निरपेक्ष नैतिक बुद्धि अथवा शुभ-संकल्प का परिणाम है। शुभ-संकल्प नैतिक नियम है । अतः इसे किसी परिणाम विशेष से सम्बद्ध करना अनैतिक होगा । बौद्धिक अथवा शुभ संकल्प ही एकमात्र शुभ है और शुभ संकल्प कर्तव्य के लिए कर्म करता है और उसमें अपवाद की कोई गुजाइश नहीं होती। शुभसंकल्प की विशेषता यह है कि वह शुभ है। वह विषय-रहित, विशुद्ध आकारिक एवं अनुभव-निरपेक्ष है और उसका निरपेक्ष रूप यह बतलाता है कि कर्म की नैतिकता कर्म के परिणाम पर नहीं, अपितु उसके प्रेरक तत्त्व अर्थात् संकल्प पर निर्भर करती है।
कर्म कितना ही प्रशंसनीय क्यों न हो, लेकिन यदि वह सहानुभूति, दया, प्रेम,करुणा आदि भावनाओं से प्रेरित होकर किया गया हो तो काण्ट के मतानुसार वह शुभ या नैतिक नहीं है । इच्छाओं से युक्त कर्म अनैतिक है।
काण्ट के अनुसार कर्म तभी शुभ है, जब वह बौद्धिक संकल्प या कर्तव्य बुद्धि से किया गया हो । उसका स्पष्ट विचार है कि किसी कर्म का सम्पादन किसी भावना या वेग की परितृप्ति के लिए नहीं, प्रत्युत बौद्धिक संकल्प के आदेश से होना चाहिए । ___काण्ट ने अपने सिद्धान्त में नैतिकता के ऐसे पांच सूत्र प्रस्तुत किए हैं, जिनके द्वारा कर्म के शुभाशुभत्व को परखा जा सकता है । उसके ये पांच सूत्र हैं(१) सार्वभौम विधान सूत्र :
तुम केवल उसी नियम का पालन करो, जिसके माध्यम से तुम
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