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________________ नैतिक प्रमाद और आचारांग : ९९ 'सुख' से भिन्न परमानन्द कहा जाता है । धम्मपद, ४ अष्टकप्रकरण" और योगशास्त्र" में भी नैतिक आदर्श के रूप में इसी परम स्वाभाविक सुख की धारणा उपलब्ध होती है । आचाराङ्ग में कहा है कि जहाँ आत्मा जन्ममरणादि के वृत्त मार्ग का अतिक्रमण कर देता है और मोक्ष सुख में रत रहता है अर्थात् जहाँ जन्ममरणादि वृत्त मार्ग का अभाव हो । वही मोक्षसुख है ।" अभिधान राजेन्द्रकोश" में भी कहा गया है कि यह अनाबाध ( मोक्षसुख ), अविनश्वर, निर्बाध, अतीन्द्रिय और स्वभावजन्य सुख है । वह 'मोक्ष सुख' शब्द द्वारा वर्णनीय नहीं है, तर्कगम्य नहीं है, और न उस मोक्ष सुख के लिए कोई उपमा ही है ।" वह स्वयं अपने उपमान- उपमेय स्वरूप को प्राप्त है । उसका वर्णन करने में समर्थ अन्य उपमा कोई नहीं है । 30 उत्तराध्ययन में भी मोक्षसुख को अतुलनीय कहा है । ११ .९२ इस प्रकार, आचाराङ्ग के अनुसार सभी निम्न स्तरीय सुख परम या सर्वोच्च सुख की प्राप्ति में बाधक होने के कारण त्याज्य माने गए हैं । उसके अनुसार ( अनाबाध ) मोक्षसुख ही अन्तिम साध्य है, जो एक निरपेक्ष आध्यात्मिक परमानन्द की अवस्था है । यही परमपद, निर्वाण या मुक्ति है । यही आचाराङ्ग का सुखवादी दृष्टिकोण है । आचाराङ्ग' के समान ही प्रवचनसार प्रशमरतिप्रकरण १४ और ज्ञानार्णव ५ में भी इन्द्रिय सुख की कटुता का दिग्दर्शन कराया गया है कि यह इन्द्रिय विषयजन्य सुखाभास वस्तुतः दुःखरूप ही है । अभिधानराजेन्द्र कोश में भी यही कहा है कि वीतरागसुख के अतिरिक्त शेष सब सुख, दुःख प्रतिकार के निमित्त हैं, सुख का अभिमान उत्पन्न करते हैं अतः वे वास्तविक सुख नहीं हैं । " वास्तविक सुख की प्राप्ति कैसे हो, इस सन्दर्भ में आचारांग के 'आसंच छंद च विगिच धीरे' १/२/४ तथा उम्मुच पासं इहमच्चिएहि ' १/३/२ इन सूत्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रागभाव या काम-वासना को समाप्त करने पर ही सच्चा सुख अथवा स्वस्वभाव रूप सुख की प्राप्ति हो सकती है । यह भी कहा है कि 'अरहं आउट्टे से मेहावी खणसिमुक्के - ११२२ अर्थात् अरति (विषय-तृष्णाओं) से निवृत्त साधक क्षणभर में मुक्त हो जाता है । दशवेकालिकसूत्र ( २।१० ) में भी 'कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं' कहकर यह स्पष्ट किया है कि कामवासनाओं को जीत लो, दुःख दूर हो जाएगा । परिणामतः निरुपाधिक वास्तविक सुख की प्राप्ति हो जाएगी। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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