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९८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन चिन्तन में लीन वीतरागी साधु सुखपूर्वक रहता है ।७५ अभिधान राजेन्द्र कोश में निष्क्रमण-सुख को चारित्रिक सुख कहा है। यह चारित्रिक सुख की अवस्था उच्चतम नैतिकता की अवस्था है। आचाराङ्ग के अनुसार निःस्पही को ही सच्चा अनगार कहा जाता है। आचाराङ्ग में यह भी कहा गया है कि 'विषय-वासना रूप भावस्रोतों को त्याग कर निष्क्रमण करने वाला महान साधक, कर्मों का क्षय कर लोक को जानतादेखता है'।७८ अभिप्राय यह है कि भावस्रोत अर्थात् विषय-वासना, कर्मास्रव के प्रवेश द्वार हैं। इन कर्म आने के द्वारों को बन्द कर देने पर ही कर्मबन्धन रुक सकता है और कर्म-बन्ध रुकने पर ही अकर्म की अर्थात् शुद्धात्मदशा प्रकट होती है । यही समत्व रूप अस्तित्व-सुख की दशा है । जो रागादि परभाव हैं, वे आत्मा के नहीं हैं। वस्तुतः निष्क्रमण-सुख और अस्तित्व सुख एक ही अवस्था के निषेधात्मक और भावात्मक दो पहल हैं। जो अपना नहीं है, उन पदार्थों या पदार्थजन्य आसक्ति से निवृत्त होना चारित्रिक या नैष्क्रमणिक सुख है, और जो अपना है, स्वस्वभाव है, उसे पा लेना ही अस्तित्व-सुख है।
बुद्ध भी कहते हैं कि जो तुम्हारा नहीं है, उसे छोड़ो। उसे छोड़ने से ही तुम्हारा हित होगा, सुख होगा।९ पाश्चात्य विचारक जे० एस० मिल भी कहते हैं कि शुद्ध अर्थ में अपने अस्तित्व के अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है । ° उपयुक्त विवेचन के आधार पर हम यह पाते हैं कि यह निष्क्रमण-सुख ही अनाबाधसुख का मूल कारण है परन्तु यह निष्क्रमण सुख भी स्वयं में आदर्श नहीं है, क्योंकि नैतिक आदर्श तो निरपेक्ष होता है। वह किसी अन्य सुख पर आश्रित नहीं होता । अतः नैतिक जीवन का चरम साध्य है-अनाबाध सुख.। यही सर्वोच्च नैतिक आदर्श है जिसे मोक्ष या निर्वाण की संज्ञा से अभिहित किया गया है । आचाराङ्ग नियुक्तिकार ने भी संयम का सार निर्वाण.अर्थात् शाश्वत परमानन्द को प्राप्ति बताया है और वही परमसुख है। निर्वाण-प्राप्ति का प्रतिफल हो वास्तविक एकान्त सुख की प्राप्ति होना है । आचाराङ्गनियुक्ति में ही नैतिक जीवन का साध्य बताते हुए आचार्यभद्रबाहु लिखते हैं कि 'चारित्र का सार निर्वाण और निर्वाण का सार अनन्त अनाबाधसुख की प्राप्ति है' ।२
छान्दोग्योपनिषद् में इस अनाबाधसुख को 'भूमा' कहा गया है। जो भूमा या अनन्त है, वही सुख है । अल्प या अनित्य वस्तु में सुख नहीं है, अतः उसी की जिज्ञासा करनी चाहिए। यह सुखवाद का सुख नहीं है, क्योंकि यह अभौतिक, नित्य और शाश्वत सुख है। इसे सुखवाद के
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