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________________ नैतिक प्रमाद और आचाराङ्ग : ९७ मानसिक दोनों सुखों में से मानसिक सुख को ही मुख्य और श्रेष्ठ माना है।' अन्य दृष्टि से सोचें तो वैयक्तिक सुख की अपेक्षा 'बहुजनहिताय, बहजनसुखाय' अर्थात् लोक कल्याणकारी सुख श्रेष्ठ है। आचाराङ्ग में भी लोक कल्याणकारी कर्म (आचरण) उपलब्ध है । आचाराङ्ग में कहा है-आगमज्ञाता भिक्ष विश्वबन्धुत्व की भावना से आप्लावित होकर लोक कल्याणार्थ अपने वैयक्तिक सुखों का भी त्याग कर देता है। वह हिंसक लोगों द्वारा दिए गए विविध कष्टों को सहते हुए लोगों को कल्याण-मार्ग दिखाता रहता है ।७२ यह दृष्टिकोण उपयोगितावादी मान्यता के निकट आ जाता है। परन्तु जब हमारे समक्ष आरोग्य का प्रश्न आता है तो साम्पत्तिक आदि सभी निम्न कोटि के सुख, त्याज्य हो जाते हैं, क्योंकि पहला सुख निरोगीकाया' कहा है, किन्तु यदि गहराई से सोचा जाय तो स्वास्थ्य या आरोग्यसुख भी स्थायी नहीं है । ये सभी निम्नस्तरीय सुख आकांक्षाजन्य हैं। 'इच्छा' 'आकांक्षा' अपने आप में साध्य नहीं है। आकांक्षाजन्य सुखों से सन्तोष जनित सुख श्रेष्ठ है। काम-भोगादि निम्नस्तरीय सुखों में आकांक्षा रहती है और जहाँ इच्छा-आकांक्षा या कामना है वहां दुःख है। इसलिए सन्तोष-सुख के लिए आकांक्षा-जन्य निम्न मुखों का त्याग कर देना चाहिए। आचाराङ्ग में भी निम्नस्तरीय सुख (लोभ) को अपेक्षा निर्लोभता (सन्तोष) को श्रेष्ठ कहा है। सच्चा त्यागी अलोभ से लोभ को पराजित करता हआ आकांक्षाजनित प्राप्त काम-भोगों का भी आसेवन नहीं करता७३ । परन्तु संतोष या अलोभ भी अन्तिम आदर्श नहीं हो सकता। निष्क्रमण या चारित्र (प्रव्रज्या) सुख के लिए सभी सूख छोड़ दिये जाते हैं। यदि अल्प सूख त्यागने पर विपुल सुख प्राप्त होता हो तो अल्पसुख का त्याग कर देना चाहिए। यही बात धम्मपद में भी है।७४ निष्क्रमण-सुख में इन्द्रिय-विषय, लोभ-तृष्णा, आसक्ति आदि भाव स्रोतों का सर्वथा अभाव हो जाता है और निःस्पृहता, वीतरागता, अर्थात् स्व-स्वरूपरमणता उपलब्ध होती है। इसीलिए कहा जाता है कि एक सन्तोषी पुरुष की अपेक्षा भी निःस्पृह वीतरागी श्रमण अधिक सुखी है । प्रशमरतिप्रकरण में लिखा है कि सभी इच्छा-आकांक्षाओं अर्थात् सांसारिक प्रपंचों से निवृत्त एक निःस्पह श्रमण को जो सुख प्राप्त होता है वह न तो चक्रवर्ती को प्राप्त होता है और न देवराज इन्द्र को । समस्त लोक चिन्ताओं से निवृत्त, राग-द्वेष और काम-विजेता तथा आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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