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________________ नैतिक प्रमाद और आचारांग : ९३ इससे यह स्पष्ट होता है कि आचारांग में सद्गुण एवं संयम की सुरक्षा के लिए वैखानस साधना के द्वारा प्राणोत्सर्ग को भी अनैतिक नहीं अपितु नैतिक माना गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि अभिग्रहनिष्ठ मुनि अपनी शक्ति, रुचि एवं योग्यतानुसार विविध संकल्पों को ग्रहण करते हैं । लेकिन प्रतिज्ञा अंगीकार करने के पश्चात् कभी अस्वस्थ होने पर या उपसर्ग आने पर भी वह साधक अपने कृतसंकल्प, व्रत एवं नियमों पर दढ प्रतिज्ञ रहे । किसी भी परिस्थिति में अपने स्वीकृत संकल्प या प्रतिज्ञा से विचलित न हो । भले ही वह प्राणान्त कर दे, लेकिन स्वीकृत प्रतिज्ञा से विचलित न हो। नैतिक निरपेक्षता एवं सापेक्षिता के प्रत्यय के विषय में विकासवादी आचार-दर्शन और आचारांग दोनों की तुलना करने पर हम पाते हैं कि आचारांग के समान विकासवादी स्पेन्सर भी नैतिकता में सापेक्ष एवं निरपेक्ष दोनों पक्षों को स्वीकार करता है। स्पेन्सर का दृष्टिकोण है कि जब तक अपूर्णता है तब तक सापेक्ष नेतिकता की स्थिति बनी रहती है। वर्तमान में हम सापेक्ष नैतिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं परन्तु पूर्ण विकसित जीवन में निरपेक्ष नैतिकता की स्थिति आ जाती है । आचारांग भी यह स्वीकार करता है कि आध्यात्मिक विकास की अवस्था में नैतिकता सापेक्ष रहती है, लेकिन जैसे ही आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त होती है, नैतिकता निरपेक्ष हो जाती है। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, आचारांग में हमें नैतिकता और सापेक्ष नैतिकता९-दोनों दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। सुखवाद और आचारांग: पाश्चात्य आचार परम्परा में कर्मों के मूल्यांकन के लिए दो प्रकार के प्रतिमान स्वीकृत रहे हैं-एक विधानमूलक प्रतिमान और दूसरा साध्यमूलक प्रतिमान । साध्यवादी विचारक मानते हैं कि कर्म के औचित्यअनौचित्य के निर्णय का आधार कोई साध्य या आदर्श होता है । यद्यपि यह साध्य क्या है ? इस सम्बन्ध में भी साध्यवादो विचारकों के भिन्नभिन्न मत हैं । सुखवाद सुख को, बुद्धिपरतावाद शुद्ध बुद्धिमय जीवन को और आत्मपूर्णतावाद दोनों के समन्वय को अन्तिम नैतिक आदर्श या साध्य मानता है। सुखवादी परम्परा नैतिकता के साध्यवादी सिद्धान्तों में अनेक मत हैं, उनमें से सुखवाद सबसे महत्त्वपूर्ण है । सुखवाद वह सिद्धान्त है जो सुख को जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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