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________________ ९२ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन संघर्ष की प्रवृत्ति स्वभाव नहीं हो सकती है, क्योंकि वह निराकरण के लिए होती है। विकास की प्रक्रिया में सहायक होना: 'विकास की प्रक्रिया में सहायक होना' भी विकासवादी सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण प्रत्यय है। उसके अनुसार उचित आचरण वह है, जो विकास में साधक है और अनुचित आचरण वह है, जो विकास में बाधक है। यद्यपि स्पेन्सर के समान आचारांग में भौतिक विकास की अवधारणा उपलब्ध नहीं है, तथापि वह आध्यात्मिक विकास की अवधारणा को अवश्य प्रस्तुत करता है। आवारांग में आध्यात्मिक विकास का गणस्थान सिद्धान्त उपलब्ध नहीं है, फिर भी उसमें अहिंसा व समता की साधना के रूप में आध्यात्मिक विकास की चर्चा अवश्य है। जीवन को लम्बाई-चौड़ाई : __ स्पेन्सर ने लम्बाई और चौड़ाई-ऐसे जीवन के दो आयाम प्रस्तुत किया है, जिनसे जीवन को लम्बाई और चौड़ाई को मापा जा सकता है। लम्बाई का आशय दीर्घायु होना है और चौड़ाई का आशय कर्मठ होना है। नैतिकता इस बात पर निर्भर है कि प्राणी कितना दीर्घायु एवं कर्मठ है। इस प्रकार स्पेन्सर जीवन की लम्बाई और चौड़ाई को नैतिक मूल्यांकन के आधार के रूप में प्रस्तुत करता है। यद्यपि आचारांग को आत्मरक्षण का प्रत्यय मान्य है, लेकिन उसमें स्पेन्सर की जीवन को लम्बाईचौड़ाई की अवधारणा उपलब्ध नहीं होती और न वह इसे नैतिकता का प्रतिमान मानता है। आचारांग की दृष्टि से नैतिक जीवन के लिए दीर्घायु और कर्मठता जीवन के आदर्श नहीं हैं, किन्तु जीवन-आदर्श है, नीति या सद्गुण से युक्त होना । क्या किसी सदाचारो, संयमी साधक के अल्पायु होने के कारण उसे बुरा कहा जा सकता है ? और क्या एक दुराचारी को शारीरिक कर्मठता के कारण अच्छा कहा जा सकता है ? ____ आचारांग में स्पष्ट कहा गया है कि जीवन का उत्सर्ग करके भी नैतिक सद्गुणों की रक्षा करनी चाहिए। ऐसी मृत्यु भी उसके लिए श्रेयस्कर हो जाती है। आचारांग में कहा गया है-तपस्वी भिक्षु के लिए ब्रह्मचर्यादि सद्गुणों की रक्षा के लिए फांसी, विष-भक्षण आदि से मृत्यु का आलिंगन करना भी श्रेयस्कर है । उसकी वह मृत्यु, अकाल मृत्यु नहीं है । वह मृत्यु तो उसके लिए मोह को दूर करने वाली, हितकर, सुखकर, कर्मक्षय करने में समर्थ, निःश्रेयष अथवा मोक्ष प्रदायिनी होती है।४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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