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Pārsvanātha Pratimäen
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दीर्घकाय बैठी श्वेताम्बर संघ की पार्श्व प्रतिमा : एक गहरे कलछऊ पत्थर की पार्श्व प्रतिमा भी बड़ी रोचक है। तीर्थंकर ध्यानस्थ बैठे हैं। उनकी दोनों बगलों के बीच में सर्प की कुंडली सुस्पष्ट है। चरणचौकी पर सिंह नहीं बने हैं बल्कि आसन को पाँच फूलों से सजाया गया है। तीन फूल बीच में हैं जो पूर्ण है और दाएं-बाएं के फूल आधे-आधे हैं। मस्तक पर धुंघराले बाल व उष्णीष बनी है, गर्दन में रेखाएं हैं। वक्षस्थल पर गोल चक्र जैसा श्रीवत्स है तथा दोनों ओर बगलों के भीतर से सर्प की कुंडली दिखलाई देती है भगवान् पार्श्व का यह अति मनोज्ञ अंकन है। इस पर अंकित लेख में इसे 'देवविनिर्मित' कहा गया है जो ठीक ही प्रतीत होता है। इस प्रतिमा की चरण-चौकी पर लेख इस प्रकार है :
संवत् १०३६ कार्तिक शुक्ल एकादस्यां श्री श्वेताम्बर मूल संघेन पंचिभ चतु : स्थी : कायां श्री देव विनिर्मित प्रतिमा प्रतिष्ठापिता। । अर्थात् इसे संवत १०३६-५७ = ९७९ ई० में "श्री श्वेताम्बर मूल संघ" ने कार्तिक शुक्ल एकादशी को स्थापित कराया था। यह कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त हुई है । (पार्श्वनाथ की श्रावस्ती से मिली सं० ११३४/ ई० १०७७ की प्रतिमा चित्र ५ में निदर्शित है ।)
पद्मावती व धरणेन्द्र सहित पार्श्व : संग्रह की अति रोचक मूर्ति भूरे पत्थर की पार्श्व प्रतिमा है। यहाँ पार्श्व की प्रतिमा अति सजीव है। ये सिंहासन पर ध्यानस्थ हैं। बाईं ओर यक्षी पद्मावती खड़ी है। इन पर तीन फणों का छत्र है और दाईं ओर धरणेन्द्र चंवर लिये खड़े हैं और उन पर सर्प के तीन फणों वाला छत्र बना है। सप्तसर्पफणों के छत्र के नीचे भगवान् पार्श्व विराजमान हैं सर्पछत्र के ऊपर त्रिछल बना है और उसके ऊपर देवदुंदुभिवादक बना है तथा दाएं-बाए हवा में उड़ते माला लिये एक-एक आकाशचारी देव बने हुए हैं। चरण-चौकी के बाईं ओर नीचे कोने की ओर पीछी लिए मुनि तथा दायीं ओर उपासक दम्पत्ति बने हैं। यह प्रतिमा लगभग ११-१२वीं सदी की है। इस मूर्ति को देखते हुए कुमुदचन्द्र के कल्याण मंदिर स्त्रोत्र का श्लोक स्मरण हो आता है
तदबिम्ब निर्मल मुखाम्बुज बद्धलक्ष्या, ये संस्तवंतव विभोरचयन्ति भव्या:॥४३२॥
यह मूर्ति महोबा से आई है।
मध्यकाल की पार्श्व की खड़ी प्रतिमा : यह श्वेत संगमरमर पर बनी दिगम्बर पार्श्व प्रतिमा भी बड़ी रोचक है। पार्श्व भगवान् की नासाग्र दृष्टि है और चरण-चौकी पर बने कमल पर खड़े हैं। बाएं-दाएं क्रमशः उपासिका-उपासक हैं। तदुपरान्त चंवरधारी दोनों ओर बने हैं। सर्प को पार्श्व के पैर से ही पीछे की ओर बनाया गया है जिसकी कुंडली उनके दोनों ओर दीख पड़ती है। सर्पफण नहीं बनाए गए हैं। इस प्रतिमा की एक अपनी ही विशेषता है कि जरा-सा भी थपकी देने पर झंकृत हो उठती है। इस विषय में प्रतिष्ठा सारोद्धार में उल्लेख है कि प्रतिमा बनाने के लिए शिला का चयन करते समय वही शिला उत्तम है जो चिकनी सुगन्ध, सुस्वर, और कठिन हो। यह प्रतिमा १२वीं या ११वीं शती की शैली के आधार पर लगती है। यह मूर्ति महोबा हमीरपुर जनपद की है (चित्र ६) ।
पद्मावती व धरणेन्द्र के साथ खड़ी पार्श्व मूर्ति" : भगवान् पार्श्व की कायोत्सर्ग मुद्रा में सर्प के सप्तफणों
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