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Arhat Pāršva and Dharanendra Nexus के छत्र के नीचे वाली भूरे पत्थर की है। नीचे चरण-चौकी में दो खम्भों के मंदिर के भीतर सर्प के सप्तफणों के छत्र के नीचे चतुर्भुजी पद्मावती बैठी हैं। उसके ऊपर १/२ चौड़ी पट्टी है और उसके ऊपर भगवान् पार्श्व कायोत्सर्ग खड़े हैं। इनके सर्पफण टूटे हैं। मुँह भी टूटा है। ऊपर त्रिछत्र के नीचे उपासक व उपासिका व चंवरधारी बने हैं। आगे बाईं ओर सर्पफणों के नीचे धरणेन्द्र चतुर्भुजी तथा ऊपर चतुर्भुजी यक्षी परन्तु पता नहीं क्यों और किस हेतु बनाये गए हैं। इसके ऊपर ईहामृग अलंकृत है । प्रतिमा शौरीपुर : बटेश्वर : आगरे की है।
धरणेन्द्र व पद्मावती रहित बैठी पार्श्व मूर्ति३५ : संग्रह में भूरे रंग के पत्थर की एक अति ही सजीव बैठी सुपार्श्वनाथ की मूर्ति है। चरण-चौकी पर दोनों ओर सिंह हैं। बीच में चक्र तथा दाएं-बाएं उपासकउपासिकाएं बनी हैं। आसन के ऊपर वस्त्र बिछा है जिसका कोना सामने को लटका हुआ है। इसके ऊपर ध्यानस्थ तीर्थंकर पार्श्व बैठे हैं । संयोग से यह मूर्ति पूर्ण पाई गई है : पार्श्व के वक्षस्थल पर सकरपारे के आकार का श्रीवत्स उभरा बना है तथा कान इसके काफी लम्बे हैं। धुंघराले बालों के ऊपर छोटीसी उष्णीष भी दीख पड़ती है। जो निःसंदेह बौद्ध प्रभाव प्रतीत होता है। पार्श्व के बाएं-दाएं एक-एक चंवरधारी खड़े हैं उनके ऊपर दोनों ओर हवा में उड़ते देवदम्पत्ति बने हैं। दोनों के ही बाएं देवियाँ बनी हैं जो क्रमशः बांसुरी व वीणा लिये हैं। तत्पश्चात् दोनों ओर एक-एक हाथी : ऐरावत : बने हैं और इनमें बाईं ओर हाथी के ऊपर बैठा सवार भी सौभाग्य से बच गया है दोनों हाथियों के बीच में व सर्पफण के मध्य में त्रिछत्र व आमलक बना है। इस मूर्ति पर लेख है। इसके अनुसार संवत् ११२० (ईस्वी १०६४) में इसको बनाया गया था। यह मूर्ति श्रावस्ती बहराइच जनपद की देन है।
पद्मावती के मस्तक पर पार्श्व का अंकन२६ : पद्मावती की बड़ी ही मनोज्ञ मूर्ति है। ये अर्द्धपर्यंकासन में बैठी हैं। देवी के आसन को कमल की पंखुड़ियों से सजाया गया है। दायां घुटना कुछ टूटा है। दोनों
ओर एक-एक उपासक व चंवरधारिण कमल पर खड़ी बनी है। देवी का नाम एक चरण-कमल पर रखा है। देवी चतुर्भुजी हैं। इनके ऊपर सर्प के सप्तफणों का छत्र बना है जिसके दो फणों को छोड़कर सभी टूट चुके हैं। सर्पफण के ठीक ऊपर आसन पर पार्श्वनाथ ध्यानासीन हैं। इनके दाएं-बाएं चंवरधारी तथा
-बाएं देवदम्पत्ति माला लिये हए दिखलाए गए हैं। यह मर्ति महोबा कलातीर्थ की देन है।
इनके अतिरिक्त जनपद ललितपुर स्थित देवगढ३७ प्रतिमाओं का उल्लेख भी समीचीन रहेगा। यहाँ के मंदिरों में पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ सुशोभित हैं। इनका समय लगभग ९वीं से १२वीं शती तक का बैठता है। यहाँ के कुल सात चित्र लिए गए हैं। इनमें एक मूर्ति देवगढ़ के मंदिर संख्या २ के परकोटे पर बनी है जिसकी चरण-चौकी पर गरुड या चकवा भी बना है। यह मुर्ति १२वीं शती की है। पार्श्व प्रतिमाएँ । सर्प के सप्तफणों के छत्र के नीचे बनाई जाती हैं किन्तु कुछ प्रतिमाओं में इनकी संख्या तीन, नौ या ११ भी पाते हैं। कहीं-कहीं प्रतिमाओं पर सर्पफण नहीं पाते हैं किन्तु पीछे देह के उनकी सर्पकुंडली दिखलाई देती है या चरण-चौकी पर सर्प का लांछन या पार्श्व का नामोल्लेख भी पाते हैं।२९
जैन-साहित्य में कमठ के पार्श्व पर उत्सर्ग का वर्णन तो पाते हैं किन्तु इस कथानक को अभिव्यक्त करने वाली कोई भी प्रस्तर की मूर्ति उत्तर प्रदेश में उपलब्ध नहीं होती है किन्तु दक्षिण में एलौरा की गुफा संख्या ३२ व तिरुकोळानाथ आर्कट से ऐसी मूर्तियां मिलती हैं। पार्श्व भगवान के जन्म, तप एवं उपदेशों से पूत उत्तर प्रदेश की पावन धरती से प्राप्त ईसा पूर्व से १२वीं
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