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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
"अहो प्रभावो वाग्देव्या यन्मातङ्गदिवाकरः ।
श्रीहर्षस्याभवत्सभ्यः समो बाणमयूरयोः ।।" 'मातंग' का 'मानतुंग' कर देने से राजशेखर के मूल पद्य में छन्दोभंग तो हो ही जाता है, पर 'मातंग' वहाँ जातिवाचक शब्द (स्मशानपाल चाण्डाल जैसी जाति) के रूप में विवक्षित है और 'दिवाकर' कवि का निजी अभिधान रहा है; वह 'सिद्धसेन दिवाकर' में है इस तरह बिरुद के रूप में नहीं है । यदि मानतुंग को 'दिवाकर' कहा जाय तो वहाँ वह उनका बिरुद बन जायेगा, जो किसी भी स्रोत से समर्थित नहीं । राजशेखर के समय में हर्ष की सभा के सदस्य माने जाने वाले 'मातंग दिवाकर' को भयहरस्तोत्रकार मानतुंग बताने के लिये न कोई प्रमाण है न कोई युक्ति । यह कोरी कल्पना मात्र है। हमें तो भक्तामरकार मानतुंग और भयहरकार मानतुंग एक ही व्यक्ति, एक ही कवि रहे हों, ऐसा दिखाई देता है । हाँ, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित ३५ गाथा में निबद्ध भत्तिब्भरथोत्त अपर नाम ‘पञ्चपरमेट्ठियोत्त' के कर्ता मानतुंग, ऊपर कथित मानतुंग नहीं हो सकते । यद्यपि १५वीं शती एवं बाद की श्वेताम्बर पट्टावलियाँ (और भक्तामर के टीकाकार गुणाकर ने भी) यह स्तोत्र भक्तामरकार एवं भयहरकार मानतुंग का मान लिया है, परन्तु उनके पूर्वकालीन प्रभावकचरितकार ने मानतुंग की कृतियों में उसका उल्लेख नहीं किया है । वस्तुतया भत्तिब्भरथोत्त मध्यम कोटि की रचना है, और वह अनेक मध्यकालीन मुहावरों से, आदतों से, भरा पड़ा है । वह किसी अन्य, मध्यकालीन श्वेताम्बर मानतुंगसूरि की रचना है, जिसके बारे में आगे (परिशिष्ट में) कुछ गौर किया जायेगा ।
कापड़ियाजी ने किसी १७वीं शती की दिगम्बर पट्टावली के आधार पर 'चिन्तामणिकल्प' मानतुंगाचार्य का माना जाता है, ऐसा लिखा है; पर वह एक पूर्णरूपेण तान्त्रिक स्तोत्र है और कापड़िया जी भी कहते हैं कि वह मानतुंग का न होते हुए अतिरिक्त इसी नामधारी किसी अन्य मानतुंग के शिष्य धर्मघोष की रचना है । ये मानतुंग भी कोई मध्यकालीन श्वेताम्बर मुनि हैं, जिनके गच्छादि का भत्तिब्भरकार मानतुंग की तरह पता नहीं है ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में उपसर्गहरस्तोत्र मानतुंग की रचना मानी जाती है । किन्तु उसमें कहीं भी मानतुंग की मुद्रा नहीं है । दूसरी ओर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वह आर्य भद्रबाहु की कृति मानी जाती है, वह भी भारी भ्रम है । न आर्य भद्रबाह मान्त्रिक थे और न ही स्तोत्र की भाषा-शैली तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की है । स्व० मुनिवर पुण्यविजयजी ने मध्यकालीन श्वेताम्बर कथानकों के आधार पर इनको वराहमिहिर का भ्राता मानकर उपसर्गहरस्तोत्र के कर्ता एवं “द्वितीय भद्रबाहु” (ईस्वी छठी शती पूर्वार्ध) के रूप में रख दिया है । लेकिन भद्रबाहु का तो स्तोत्र में नामोनिशान नहीं है और स्तोत्र के प्रथम पद्य के आरम्भ में पार्श्व यक्ष का जो उल्लेख सन्निहित है वह उसको ८ वीं शताब्दी के बाद की ही रचना होने का प्रमाण देता है१२ । तीर्थंकरो के यक्ष-यक्षियों का विभाव ईस्वी नवम-दशम शतक के पूर्व न तो कहीं साहित्य में उल्लिखित है३, न ही शिल्प-कंडार (Sculptural carving) में मिलता है । महाराष्ट्री-प्राकृत में पाँच गाथाओं में रची हुई यह कृति किसी मध्य-काल के आरम्भ के अज्ञात श्वेताम्बर कर्ता की है, जो नागविष और रोगादि साधारण संकट (दुष्ट ग्रह, महामारी, ज्वरादि) के निवारण के भाव
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