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________________ भयहरस्तोत्र है । इसे भी मानतुंग की ही कृति बतलायी जाती है, क्योंकि 'भक्तामर-स्तोत्र' की तरह इसके भी अन्तिम पद्य में (श्लेषात्मक) मानतुङ्ग शब्द पाया जाता है । 'भक्तामरस्तोत्र' में जिस तरह आठ भयों का वर्णन है, उसी तरह ‘भयहर-स्तोत्र' में भी है । इसकी गाथा १७ में 'रण' भय के अन्तर्गत रिउणरिन्द (रिपुनरेन्द्र) शब्द पाया जाता है उनसे भक्तामरस्तोत्र के 'अरिभूपतीनां' शुद्ध पाठ का अच्छा समर्थन होता है।" कटारिया जी का यह कथन अमृतलाल जी का समर्थन करने के बजाय दोनों कृतियों के कर्ता के रूप में एक ही मानतुङ्गाचार्य होने का ही प्रतिपादन करता है । दूसरी ओर मानतुंग अभिधान धारण करने वाले पृथक् मुनियों की सूची देकर उनमें से पुराने साहित्य के सप्तम मानतुंग रूप में रख कर उनके बारे में स्वनामधन्य ज्योतिप्रसाद जी लिखते हैं : “(७) भयहर अपर नाम नमिऊणस्तोत्र (प्राकृत) के कर्ता । स्तोत्र पार्श्वनाथ की स्तुति रूप है और अंतिम पद्य में मानतुंग की छाप है । जो पढइ जो अ निसुणइ ताणं कइणो य माणतुंगस्स, इसे भक्तामरकार की ही कृति प्राय: मान लिया गया है । किन्तु यह अनुमान मात्र ही है।" भक्तामर के टीकाकार रुद्रपल्लीय गच्छ के गुणाकरसूरि (ईस्वी० १३७०) मानते थे कि भयहर के रचयिता भक्तामर वाले मानतुंग ही हैं । उनसे पहले भयहरस्तोत्र के आदि टीकाकार खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि (ईस्वी १३०८) का भी कुछ ऐसा ही कथन रहा है । उनसे भी कुछ ४१ वर्ष पूर्व राजगच्छीय प्रभाचन्द्र (ई० १२७७) का तो इस विषय में स्पष्ट विधान है कि वह भक्तामरस्तोत्रकार मानतुंग की ही रचना है और उन्होनें तो उसका सर्जन कैसे हुआ, इस सम्बन्ध में छोटी सी दन्तकथा भी दे दी है । यदि भयहरस्तोत्र भक्तामरकार का है ऐसा “अनुमानमात्र" हो तो वह अनुमान न केवल आधुनिक श्वेताम्बर एवं निर्ग्रन्थेतर विद्वानों का, वरन् मध्यकालीन श्वेताम्बर ग्रन्थकर्ताओं का भी है, जिन्होंने उनके सामने रहे आनुश्रुतिक वृत्तान्तों के आधार पर ऐसा लिखा होगा । कटारिया महोदय तो उसको भक्तामरस्तोत्रकार मानतुंग की ही रचना मानने के पक्ष में हैं, ऐसा स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है । इस अनुलक्ष में उन्होंने एक प्रमाण अपनी ओर से उपस्थित भी किया जो हम ऊपर दुबारा देख आये हैं । इधर हम भी स्तोत्र की भाषा, शैली-लक्षण, संरचना तथा भक्तामर के अष्ट-महाभयों वाले पद्य के संग कुछ वैचारिक एवं वैधानिक समान्तरता, और स्तोत्र के अन्तरस्थ विशिष्ट छन्दोलय को देखकर उसको भक्तामरकार की कति मानने में कोई बाधा-दविधा का अनुभव नहीं करते । आखिर अनगप्तकाल में दो अलग-अलग मानतुंग इतनी समानता के संग विद्यमान थे ऐसा मानना कठिन है । ऐसा मानने के लिए कुछ ठोस ऐतिहासिक सबूत मिलना ज़रूरी है। __संस्कृत रूप में भयहरस्तोत्र कुछ हद तक कविराज मयूर की शैली का स्मरण कराता है, यह तथ्य भी स्तोत्र के प्राचीन होने का समर्थन करता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में, मध्यकाल में मानतुंग अभिधान धारण करने वाले मुनि या आचार्य अनेक हो गये हैं; लेकिन ऐसा उच्च कोटि का स्तोत्र रचने का सामर्थ्य उनमें नहीं हो सकता, न ही वे ऐसी प्राचीन शैली में लिख सकते थे । ___अब रही भयहरकार मानतुंग और कविराज राजशेखर कथित मातंग दिवाकर की सायुज्यति की बात, जिसका निर्गमन राजशेखर के निम्न पद्य पर निर्भर है । यथा : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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