________________
मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
संक्षिप्त रचना वीरस्तुति तथा अज्ञात कर्तृक उवसग्गहरथोत्त (प्राय: ९वीं-१०वीं शताब्दी) । भयहरस्तोत्र की कल्पना मूलत: संस्कृत में की गई हो और तत्पश्चात् प्राकृत में रूपान्तरित करके रख दिया हो, ऐसा कुछ भास होता है । आर्या-छन्द में निबद्ध गाथाओं में प्रवाह एवं मंजुलता है और उसकी संस्कृत छाया पढ़ने से मूल की प्राचीनता विशेष प्रामाणित होने के अतिरिक्त उसमें मृदंग के ध्वनिसदृश अनुरणनात्मक घोष सुनाई पड़ता है, जो मानतुंगाचार्य की निजी शैली की लाक्षणिकता है । प्राकृत से की गई संस्कृत छाया मूल छन्द का सर्वांश में, एवं अविकल, रूप तो हमेशा बता नहीं सकती; ऐसा सांगोपांग निर्वाह सम्भव भी नहीं है । पर वर्णविन्यास और शब्द-संकलना की चारुता एवं पदावली की सरसता तो इससे स्पष्ट हो ही सकती है । (यहाँ मूल पद्य के संग-संग उसकी संस्कृत छाया तुलनार्थ उपस्थित की गई है।)
इस स्तोत्र में एक-एक महाभय का स्वरूप दो-दो गाथाओं द्वारा, अर्थात् चार-चार पदों में प्रकट किया गया है और बाद की दो उपसंहार-गाथाओं में पूरे ही अष्ट-महाभयों का नाम समाविष्ट कर दिया गया है । भक्तामरस्तोत्र में भी वसन्ततिलका-छन्द में अष्ट-महाभयों को चार-चार पद वाले आठ पद्यों में और इस के बाद आने वाले पद्य में आठों ही महाभयों को एकत्रित रूप में रख दिया है । यह ख़ासियत भी दोनों के रचयिता एक ही कवि, अर्थात् प्राचीन 'मानतुंग' के होने का समर्थन करती है। जैसा कि हम आगे देखेंगे, महाभयों का उल्लेख कुछ और श्वेताम्बर रचनाओं में भी समाविष्ट है; लेकिन उनमें कहीं भी एक-एक भय को स्वतंत्र रूप से एक-एक पद्य में गुम्फित नहीं किया गया है । यह विशेषता भी उपर्युक्त दोनों स्तोत्र के कर्ता, एक ही होने की पुष्टि करती है ।
प्रा० कापड़िया ने इस स्तोत्र को सावचूरी प्रकट तो किया है, पर उस पर कोई प्रास्ताविक टिप्पणी या चर्चा नहीं की, यह आश्चर्य की बात है । ठीक इसी तरह मुनिप्रवर चतुरविजय जी ने भी इस स्तोत्र को मन्त्राम्नायवाली अवचूरि संग प्रकाशित किया, पर स्तोत्र सम्बद्ध कोई खास परामर्श नहीं दिया, और साराभाई नवाब ने इस स्तोत्र के विषय में जो कुछ कहा है, वह उनकी मन्त्र-तन्त्र के साहित्य पर रही अगाध प्रीति को सूचित करने के अलावा और कुछ नहीं है ।
इस बारे में दिगम्बर विद्वानों ने ज़रूर कुछ कहा है, जो चिंतनीय है और कुछ हद तक तो चिन्ताजनक भी । अमृतलाल शास्त्री लिखते हैं : "..... भक्तामरस्तोत्र के अतिरिक्त आचार्य मानतुंग का प्राकृत भाषा में निबद्ध एक ‘भयहरस्तोत्र' है । इस स्तोत्र के दूसरे पद्य से सत्रहवें पद्य तक क्रमश: दो-दो पद्यों में कुष्ठ, जल, अग्नि, सर्प, चोर, सिंह, गज और रण इन आठ भयों का उल्लेख है । 'मङ्गलवाणी' (पृ० १५८-१६३) में मुद्रित इस स्तोत्र के ऊपर 'नमिऊणस्तोत्र' अंकित है । इस नाम का कारण प्रारम्भ का 'नमिऊण' पद का होना है । उन्नीसवीं गाथा से इसका ‘भयहर' नाम सिद्ध होता है। इक्कीसवीं गाथा में रचयिता का श्लिष्ट नाम भी दिया गया है।" "भयहरस्तोत्र मानतुंग दिवाकर की कृति है, न कि मानतुंग सूरि की । उनका उल्लेख आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि ने 'मानतुङ्गप्रबन्ध' (श्लोक १६३) में किया है । इसी विषय में महान विद्वान् कटारिया ने प्रकाश डाला है ।"
कटारिया महोदय ने जो लिखा है वह पूर्णरूपेण इस प्रकार है : “प्राकृत में २३ गाथात्मक एक 'भयहरस्तोत्र' पाया जाता है, जो श्वेताम्बरों के यहाँ से 'जैनस्तोत्र-सन्दोह' द्वितीय भाग में प्रकाशित हुआ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org