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भयहरस्तोत्र
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भक्तामरकार मानतुंगसूरि की द्वितीय कृति के रूप में २१ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध भयहरस्तोत्र प्रसिद्ध है । खरतरगच्छ के “सप्तस्मरण" में, और तपागच्छ के "नवस्मरण' में भयहरस्तोत्र भी अन्य मशहूर स्तुति-स्तोत्रों के संग समाहित है । प्रभावकचरितकार प्रभाचन्द्र ने “मानतुंगचरित' में तथा गुणाकर सूरि ने अपनी वृत्ति में उसको मानतुंगाचार्य की ही कृति माना है । दिगम्बर सम्प्रदाय के साम्प्रतकालीन कुछ विद्वान् इस स्तोत्र को (वर्तमान श्वेताम्बर प्रकाशनों के माध्यम से) जानते तो हैं, पर उनके वहाँ परम्परा से उस स्तोत्र की प्रसिद्धि नहीं है, और इनमें से कुछ उसको भक्तामरकार की कृति नहीं मानते । इस विषय पर यहाँ आगे विचार किया जायेगा ।
__ स्तोत्र की अन्तिम (२१वीं) गाथा में श्लेषमयी मुद्रारूपेण 'मानतुंग' नाम दृष्टिगोचर होता हैं, जैसा भक्तामरस्तोत्र में भी है । कुछ-कुछ प्रतियों में २३ या २५ की संख्या तक की गाथायें भी मिलती हैं; पर वह सब एक प्रकार से स्तोत्र की ही प्रशस्ति के रूप में, मध्यकाल के कुछ साधारण कवियों की बंधी हुई, दिखाई देती हैं । खंभात के शान्तिनाथ जैन भण्डार की ईस्वी १३वीं शती उत्तरार्ध की प्राचीनतम प्रति में, और प्रमाण में विशेष पुरानी टीकाओं में तो २१ ही गाथाएँ मिलती हैं । भक्तामर की तुलना में भयहरस्तोत्र की प्रतियाँ कम मिलती हैं और भक्तामर की तरह वह सर्वप्रिय भी नहीं है।
यह स्तोत्र जिन पार्श्वनाथ को उद्देशित है और उसमें कर्ता ने पार्श्वनाथ के गुणानुवाद पर इतना ध्यान नहीं दिया जितना उनके नाम के प्रभाव से अष्ट-महाभयों के निवारण पर । इस एकांगिता के कारण भक्तामरस्तोत्र के पास रखने से वस्तु की दृष्टि से उसका महत्त्व कुछ कम ही दिखाई देता है ।
इस स्तोत्र पर यद्यपि भक्तामर के समान विपुल वृत्त्यात्मकादि परिकर साहित्य नहीं हुआ, फिर भी महाकवि मानतुंगाचार्य की कृति मानी जाने से उसका कुछ हद तक महत्त्व तो था ही । तदतिरिक्त मध्यकालीन श्वेताम्बर मुनिवरों की अष्ट-महाभयों के निवारक माने जाते स्तोत्रों के प्रति रुचि एवं आदर के कारण कुछ विवरणात्मक साहित्य तो बना ही है । इसमें खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि की सं० १३६५/ ई० स० १३०९ में साकेतपुर (अयोध्या) में बनाई हुई अभिधानचन्द्रिका अपरनाम अभिप्रायचन्द्रिका नामक वृत्ति, अज्ञात कर्ताओं की एवं अनजान काल की तीन अवचूर्णियाँ, एक मन्त्र-तन्त्रमय अवचूरि, खरतरगच्छीय समयसुन्दर सूरि की वृत्ति (ईस्वी १६ वीं शताब्दी), नागपुरीय तपागण के हर्षकीर्तिसूरि (ईस्वी १६ वीं शती अन्तभाग) और तपागच्छीय सिद्धिचन्द्र (प्राय: ईस्वी १७ वीं शती प्रथम चरण) की वृत्तियाँ प्रमुख हैं ।
स्तोत्र की भाषा एवं संघटना-शैली प्राचीन दिखाई देती है, जैसे कि नन्दीषेण का अजितशान्तिस्तव (प्राय: ईस्वी ४७५-५००), द्वितीय पादलिप्तसूरि (सप्तम शती) की गाहाजुहलेण नामक ४ गाथायुक्त
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