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भयहरस्तोत्र
को लेकर बनाया गया है । श्रुताज्ञा - उत्थापक श्वेताम्बर चैत्यवासी साधुगण उस काल में ऐसी रचनाएँ करने में काफ़ी दिलचस्पी दिखाते थे । इस स्तोत्र पर की गई सभी प्राचीनतम टीकाएँ श्वेताम्बरों की रची हुई दिखाई देती हैं। दो भिन्न कर्ताओं की मन्त्राम्नाय वाली प्रायः १२वीं शताब्दी की टीकाएँ प्रकाशित भी हो चुकी हैं" ।
टिप्पणियाँ :
१. प्र० च०, पृ० ११७ तथा कापड़िया, भक्तामर, पृ० ४.
२. कापडिया, भक्तामर०, पृ० ५.
३. कापडिया, भक्तामर०, पृ० २२५-२३६.
४. जैनस्तोत्रसन्दोहः, द्वितीयो विभागः, अहमदाबाद १९३६, पृ० १४-३०.
५. पूर्वाचार्य० पृ० ८-१०.
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६. भ० स्तो०, पृ० ९-१०.
७. वही, पृ० १०.
८. जै० नि० १०, पृ० ३३५.
९. स० भ० २०, पृ० ३५.
१०. इस मुद्दे पर यहाँ "परिशिष्ट" अंतर्गत ऊहापोह किया गया है ।
११. मूल स्तोत्र के लिए देखिये " श्रीचिन्तामणिकल्प," जैन स्तोत्र सन्दोह, भाग २, सं० मुनि चतुरविजय, अहमदाबाद १९३२, पृ० ३४.
१२. क़रीब एक दशक पूर्व प्रथम संपादक ने अपने वाराणसी स्थित मकान पर पं० मालवणिया जी को इस विषय पर अपना विचार दर्शाया था, और इसके आधार पर और स्तोत्र की शैली एवं वस्तु को देखकर उवसग्गर नवम दशम शतक पूर्व की कृति न होने का प्रमाण दिया था। उस मोके पर डा० सागरमल जैन भी उपस्थित थे । बाद में डा० जैन ने यह वस्तु अपने किसी प्रकाशन में निजी शोध के रूप में ली थी ऐसा स्मरण है।
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१३. हमें ज्ञात है वहां तक तीर्थंकरो के यक्ष-यक्षीओं का प्रथमोल्लेख तृतीय पादलिप्त सूरि कृत निर्वाककलिका (प्राय: ईस्वी १० शतक तृतीय पहर) अंतर्गत मिलता है, और शिल्प में उसका अंकन सर्व प्रथम देवगढ़ के प्रायः ईस्वी ८७३ में बने मुख्य जिनालय में देखने को मिलता है ।
१४. एक है श्रीचन्द्राचार्य की लघुवृत्ति
पृ० ६७-७६, और दूसरी है द्विज पार्श्वदेव विरचित लघुवृत्ति, जैन स्तोत्र सन्दोह २, पृ० १-१३.
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देखिए जैनस्तोत्रसन्दोहः प्रथमो भागः, अहमदाबाद १९३२, "ग-परिशिष्ट, "
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