________________
६
भक्तामर एवं भयहर के अष्टमहाभय
निर्ग्रन्थ दर्शन में अर्हत्, जिन, केवली एवं मुक्तात्मा - सिद्धात्मा को कषाय एवं वांछादि से परे माना गया है । इसी वजह से वे अनुग्रह करने के लिए या अभिशाप देने के लिए समर्थ नहीं हैं । इनके लिए " रोष" या "प्रसाद" संभव नहीं । इनका गुणानुवादयुक्त समुत्कीर्तन केवल अपनी मनः शुद्धि, चित्तविशुद्धि, आत्मशुद्धि एवं कुशल परिणाम के लिए ही किया जाता है, जिससे कर्मक्षय होता है,
लाभ होता है, ऐसा सैद्धान्तिक - तार्किक दृष्टिकोण रहा है । यही कारण है कि वैदिक या पौराणिक देव - देवियों की स्तुति इत्यादि में जो सांसारिक सुखप्राप्ति और दु:खनिवारण से जुड़ी हुई कामना और याचना की जाती है, वह वस्तु प्राचीनतर निर्ग्रन्थ स्तवनों में प्रायः दृष्टिगोचर नहीं होती । परन्तु भक्तामर स्तोत्र के आठ काव्यों (३४-४१ ) में जिनेन्द्र के नामकीर्तन से अष्टप्रकार के महाभय दूर होते हैं, या उन पर काबू पाया जाता है, ऐसी वर्णना मिलती है । इसका समाधान इतना ही है कि वहाँ तीर्थंकर को कुछ करने के लिए बाध्य की जाने वाली प्रार्थना न होते हुए केवल उनके मंगलमय नामस्मरण के प्रभाव से, उनके पाद-पंकज के ध्यान मात्र से, भय का विलोप हो जाता है ऐसा कहा गया है, इतना ही माना गया है । वहाँ कहीं भी भय दूर करने की अभ्यर्थना नहीं की गयी है । इसलिए इस प्रकार की स्तुति निर्ग्रन्थ सिद्धान्त के प्रतिकूल नहीं है ।
भक्तामर कथित ये आठ महाभय हैं—दुष्ट गज, हरिणाधिप (सिंह), दावानल, फणिधर, अरिराजसैन्य, तूफानी समंदर, जलोदर और लौहबन्धन । मानतुंगाचार्य की अन्य कृति भयहरस्तोत्र में कुछ क्रमभेद से और नामान्तर तथा प्रकारान्तर से, आठ में से छह भय तो वही हैं जो पूर्व कृति में हैं; परन्तु दो भय में फर्क है । यहाँ लौह - जंजीर के बन्धन के स्थान पर 'अटवी' दिया है और जलोदर के स्थान पर कुष्ठरोग, यथा— कुष्ठ महारोग, तूफानी समंदर, वनदाह, भुजंग, भिल्ल - तस्कर पुलिंद - शार्दूल व्याप्त अटवी, कुपित सिंह, मदोन्मत्त हाथी और समर ।
अष्ट-महाभय के सन्दर्भ में दिगम्बर विद्वद् - विभूतियों द्वारा कोई खास विचार नहीं किया गया है, न ही निर्ग्रन्थेतर विद्वानों ने इस विषय पर कोई टिप्पणी की है । श्वेताम्बर विद्वानों में भी केवल प्रा० कापड़िया ही अकेले विद्वान् हैं जिन्होंने अन्य रचनाओं में जहाँ-जहाँ उनको अष्ट महाभय विषयक सामग्री मिली, तुलनार्थ प्रस्तुत किया था, जो उपयुक्त होने से यहाँ उनकी प्रस्तावनाओं से ली जायेगी, और हमें जो चार-पाँच विशेष सन्दर्भ मिले हैं वे भी पेश किये जायेंगे ।
कापड़िया जी ने सबसे पहले समवायांगसूत्र ( वर्तमान संकलन ई० स० ३५३) के अन्तर्गत सप्तम समवाय में आने वाले सात 'भयस्थानक' की बात की है; वे भयस्थान इस प्रकार हैं- इहलोक, परलोक, आदान, अकस्मात्, आजीव, मरण और अपकीर्ति । मूलपाठ इस प्रकार है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org