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भक्तामर एवं भयहर के अष्टमहाभय
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सत्त भयट्ठाणा पन्नता, जहा — इहलोगभए, परलोगभए, आदानभए, अकमहाभए, आजीवभए ( वा वेदनाभये), मरणभए, आसिलोगभए । "
आगमकथित इन सप्तमहाभयस्थान से भक्तामर - भयहर कथित अष्ट- महाभय प्रायः भिन्न हैं और पीछली कृति में दिये गये सब विशेषतर लौकिक हैं ।
मानतुंगाचार्य के बाद भद्रकीर्ति सूरि के शारदास्तवन (प्रायः ईस्वी ७७५-८००) के नवम पद्य में श्रुतदेवता सरस्वती की उपासना से द्विरद (हाथी), केसरि (सिंह), मारि, भुजंग (साँप ), असहन (शत्रु), तस्कर (चोर), राज (राजा - प्रेरित) और रोग का भय नहीं होता है । यथा
द्विरदकेसरिमारिभुजङ्गमासहनतस्करराजरुजां भयम् ।
तवगुणावलिगानतरङ्गिणां
न भविनां भवति श्रुतदेवते ! ।।९।।
(यहाँ जिन के स्थान पर श्रुतदेवता है, शायद इसलिए कापड़िया जी ने यह उल्लेख छोड़ दिया हो ।) नवमी शती में देखा जाय तो कृष्णर्षि के शिष्य जयसिंह सूरि का धर्मोपदेशमाला - विवरण ( ई० स० ८५९) अंतर्गत अष्ट महाभय का नही किन्तु सप्तभयस्थान का उल्लेख हुआ है ।
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रणे वने शत्रु - जलाग्नि मध्ये, महार्णवे पर्वत मस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषय स्थितं वा, रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥
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और उसी काल का दूसरा एक और दृष्टान्त भी मिला है । निवृत्ति कुल के मानदेव सूरि-शिष्य शीलाचार्य के चउपन्न - महापुरिसचरिय ( ईस्वी ८६९ ) अन्तर्गत “पाससामिचरिय” में देवेन्द्र द्वारा की गई स्तुति में भी महाभयों का उल्लेख हुआ है । यथा :
इय हरि करि - सिहि - फणि-चोर - (कार) - जलणिहि- पिसाय-रण- रोगं । ण णरस जायइ भयं तुह चलणपणामणिरयस्स ।। ३३९ ।।
शीलाचार्य के पश्चात् शोभनमुनि की स्तुतिचतुर्विंशतिका ( ईस्वी १०वीं का अन्त या ११वीं शती का आरंभ ) में ८३ वें पद्य में भी भयाष्टक उल्लिखित हैं, यथा
जलव्याल व्याघ्र ज्वलनगजरुग् बन्धनयुधो । गुरुर्वाहोऽपातापदघन गरीया न सुमतः । कृतान्तस्रासिष्ट स्फुटविकट हेतु प्रमितभागुरुर्वादोऽपाता पदघनगरीयानसुमतः ॥ ८३ ॥
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