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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
यहाँ जल, व्याल (सर्प), व्याघ्र (शेर ), ज्वलन (आग), गज, रोग, बन्धन और युद्ध इस प्रकार अष्ट-महाभय बताया गया है । इनमें से सात तो प्रायः मानतुंगाचार्य की कृतियों में मिलते हैं, लेकिन सिंघ की जगह शेर का जिक्र है जिसको प्रकारान्तर ही मानना ठीक होगा ।
श्वेताम्बर साहित्य में उपलब्ध एक प्राचीन प्राकृत उक्ति में जिन को किये गये नमस्कार से तत्क्षण दूर होने वाले अष्टभय की इस प्रकार गिनती की गई है । व्याधि (रोग), जल, आग, हरि (सिंह), हाथी, चोर, युद्ध और सर्प' । यथा :
वाहि-जल-जलण- हरि करि - तक्कर - संगाम - विसहर - भयाइं । नासंति तक्खणं जिणनवकारप्पभावेण ।।
मानदेवसूरि के प्रसिद्ध लघुशान्तिस्तव ( प्रायः ईस्वी ११वीं शती तृतीय चरण) में भी महाभयों का उल्लेख करने वाला पद्य है । यथा :
सलिलाऽनल- विष- विषधर - दुष्टग्रह - राजरोगरणभयतः । राक्षस-रिपुगणमारी-चौरेतिश्वापदादिभ्यः ।।
यहाँ आठ के स्थान पर प्राय: द्वादश भय गिनाया गया है । यथा जल, अग्नि, विष, सर्प, दुष्टग्रह, राजरोग (क्षय), रण (युद्ध), राक्षस, रिपुगण, महामारी, चोर और श्वापद ( सिंह, बाघ आदि) ।
मानदेवसूरि के कुछ ही दशक बाद खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि के प्राकृत में निबद्ध अजितशान्तिस्तव (प्राय: ईस्वी १०७५ - १९९०) में भी आठ विशेष भयों का उल्लेख है" । सन्दर्भगत दोनों जिनों के कीर्तन प्रभाव से उनके शमन की बात कही गई है ।
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अरिकरिहरितिण्डुपहंपुचोराहीवादी समरऽमरमारीरुदखुद्दोपसगा ।
पलयमजियसंती कित्तणे झत्ति जंती निविडतरमोहा भक्खरालुंखि अव्व । ।
उपरोक्त जिनवल्लभरि के शिष्य जिनदत्तसूरि के ललितसुन्दर अजितशान्तिस्तवन ( प्राय: ईस्वी ११९२५) के अष्टम पद्य में भी अनेक प्रकार के भय का प्राकट्य जिनद्वय की स्तुति से नहीं होता है, ऐसा कहा गया है । यथा :
तृष्णोष्णे न पयो न मारिरपि न द्वीपी न दन्ती च नो सिंहो न ज्वलनो न पन्नगभवा भीतिर्न भूतास्तु न । शाकिन्यो न विनायका न तु विषं नारातयो नाजयो
न क्षेत्राधिपगोत्रपाः प्रतिभयं कुर्वन्ति तोस्तौति ( तौ स्तौति ) यः ।।
ठीक इसी तरह अज्ञात कर्त्ता के अद्यावधि अप्रकट आदिनाथमहाप्रभावकस्तवन (प्राय: इस्वी १२वीं शती) के ३४ वें पद्य में भी अनेक भयों का नाश पञ्चपरमेष्ठि पदों को रटने से हो जाता है १२ । यथा :
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