________________
भक्तामर एवं भयहर के अष्टमहाभय
सङ्ग्रामसागरकस्करीन्द्र भुजंग सिंह -
दुर्व्याधिवह्निरिपुबन्धन संभवानि । चौरग्रहभ्रमनिशाचरशाकिनीनां
नश्यन्ति पञ्चपरमेष्ठिपदैर्भयानि ।। परन्तु अज्ञातगच्छीय अजितसिंहसूरिकृत पार्श्वस्तोत्र (प्राय: १२ वीं शताब्दी) के पाँचवें पद्य में आठ ही भय का उल्लेख है१३ ।
रिपुचोरमहीपाल-शाकिनी भूत सम्भवाम् ।
अरण्यं देहिजां भीति हन्ति बद्धभुजादिषु ।। इसके अलावा अज्ञात श्वेताम्बरकर्ता के प्राकृत में निबद्ध अर्णहास्तोत्र (शायद ईस्वी १२वीं शती) में चोर, सावज (श्वापद,सिंहादि), सर्प, जल, आग, शतबन्धन, राक्षस, रण और राजभय इस प्रकार नौ भयों का उल्लेख है | यथा :
नासेड़ चोर सावय विसहर जल जलण बंधण सयाई ।
चिंतिजंतो रक्खस रण रायभयाइं भावेण ।। कुलप्रभसूरि का मन्त्राधिराजकल्प (प्राय: ईस्वी १२००-१२२५) में भी महाभय का निवारण (पार्श्वनाथ के नामस्मरण से) हो जाता है ऐसा कहा गया है ।
नारिन हरिन करी नाहिर्नाग्निर्न सागरो न गदः । न मापतिर्न दस्युर्न रुजा नाकालमरणमपि ।।७।। तस्य भयाय प्रभवति हृदये जागर्ति यस्य पार्श्वेशः ।
पवनेरिताम्बुदा इव किन्त्वेते झटिति विघटन्ते ।।८।। तपागच्छीय धर्मकीर्तिगणि (पश्चात् धर्मघोषसूरि) कृत प्राकृत-निबद्ध शत्रुजयकल्प (प्राय: ईस्वी १२६४) के ३७ वें पद्य में प्रस्तुत तीर्थ की संस्तवना से नष्ट होने वाले जल, अग्नि, जलधि, रण, वन, हरि, करि, विष और विषधर इस तरह आठ दुष्ट भय गिनाये हैं । यथा :
जल जलण जलहि रण वण हरि करि विस विसधराइ दुष्टभयं ।
नासइ जं नाम सुई तं सित्तुंजयमहातित्थं ।।३७ ।। अलावा इसके अंचलगच्छीय महेन्द्रसूरि (ईस्वी १३वीं शताब्दी तृतीय-चतुर्थ चरण) के संस्कृत भाषा निबद्ध जीरापल्ली-पार्श्वस्तोत्र में काव्यमय भाषा में अनेक भयों का निर्देश किया गया है। यथा :
गराध्मातदर्पाः प्रसर्पन्ति सर्पा, न मर्माविधो भूभुजां वाऽपसर्पाः । निबद्धावनीविग्रहाः कुग्रहा वा, धनोच्छृङ्खला नो खला दुष्टभावाः ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org