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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
स्फुटं चौरिका वृत्ति शूरा न चौराः, क्षुधाग्रस्तलोकाः समानापिरौरा । यमस्येव दूताः प्रभूतान भूता, न देहेऽपि रोगाशिरं वाऽनुभूताः ।। मदोन्मत्तकोपोद्धुराः सिन्धुरा वा, न च व्याघ्रसिंहा महाघोररावाः । न दावानला भूरिजिह्मः कराला, न वाऽऽत्तङ्कदा वार्द्धिकल्लोलमालाः ।। महाकोपकामानला भूमिपालाः सशस्त्रा न योधाः कलौ भीमपालाः । पुरस्तस्य पीडाहराः शुद्धवर्णा, विभो ! येन जप्ता भवन्नामवर्णाः ।। महाभय के विषय में प्रा० कापड़िया ने उत्तर - मध्यकाल की भी अनेक श्वेताम्बर कृतियों का सोद्धरण उल्लेख किया है । वह प्रमाण में अर्वाचीन होने से यहाँ उनमें से पूरे उद्धरण न देकर कर्त्ता, स्तोत्र एवं रचनाकाल के बारे में बताकर छोड़ देंगे । इनमें जिनप्रभसूरि का पञ्चपरमेष्ठिस्तोत्र (प्राय: ईस्वी १३००-१३२५) आञ्चलिक मेरुतुंगाचार्य का पार्श्वस्तोत्र ( प्रायः ईस्वी १४वीं शताब्दी चतुर्थ चरण), अज्ञातकर्त्तृक पार्श्वस्तोत्र ( शायद १५वीं शताब्दी), तपागच्छीय मुनिसुंदरसूरि कृत अध्यात्मकल्पद्रुम (ईस्वी १५वीं शताब्दी प्रथम चरण), तपागच्छीय रत्नमंदिरगणि कृत उपदेशतरंगिणी (१५वीं शती तृतीय चरण) और लोकागच्छीय खेमकर्ण का गुजराती भाषा में रचा गया पार्श्वनाथछन्द ( प्राय: १७वीं शताब्दी) इत्यादि । इनमें से उपदेशतरंगिणी में १४ और अध्यात्मकल्पद्रुम में १६ भयों का उल्लेख है" । ( इसके अलावा खंडिल्लगच्छीय भावदेव के पार्श्वनाथचरित ( ईस्वी १३५५ ) में भी अष्टभयनिवारण का भयों के नाम समेत उल्लेख अभी-अभी हमारे देखने में आया है" । )
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इन लौकिक भयों का तीर्थंकर के ( भावपूर्वक किये गये ) नामस्मरण मात्र से हो जाने वाले विलोपन की विभावना असल में मानतुंगाचार्य से भी पुरातन है और निर्ग्रन्थ स्तोत्र - साहित्य में उसका सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण उल्लेख सिद्धसेन दिवाकर की परात्माद्वात्रिंशिका ( द्वात्रिंशिका क्रमांक २१ ) के अन्तर्गत मिलता है । और यह उल्लेख कापड़ियाजी ने नहीं किया है । भुजंगप्रयात - वृत्त में निबद्ध स्तुति में वहाँ यह २५वाँ पद्य है
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कल व्याल वह्नि ग्रह व्याधि चौर व्यथा वारण- व्याघ्र - विध्यादिविघ्नाः । यदाज्ञा जुषां युग्मिनां जातु न स्युः
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ।।
इससे सिद्ध होता है कि सिद्धसेन जैसे दार्शनिक कवि भी भक्तिभावावेश में आकर, लिखते थे तो अष्ट महाभय जैसी लौकिक भावना को भी सुग्रथित वर्णमैत्री, सुरम्य प्रासानुप्रास - अन्तरप्रासादि घोषात्मक एवं स्फोटात्मक शब्दावली के बन्ध में गुम्फित कर देते थे ।
ऊपर की चर्चा का निष्कर्ष यह है कि महाभयों की संख्या प्रारंभ में आठ ही रही थी, बाद में उसमें क्रमशः वर्धन होता रहा है । अष्ट- महाभयों के समूह में विविध रचनाओं में भी अधिकतर भय कुछ भिन्न भी थे । मानतुंगाचार्य के सामने सिद्धसेन वाली अष्ट- महाभयों की परंपरा न होकर
समान,
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