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भक्तामर एवं भयहर के अष्टमहाभय
कोई दूसरी ही रही है और बाद वालों ने इन दोनों के आधार से अतिरिक्त अपने-अपने समय में प्रचलित भयों का आभिधानिक रूप समाविष्ट किया । (यदि हम वर्तमान में उपस्थित भयों की गिनती करने का प्रयास करें तो कई बीसों में वह संख्या बन सकती है ।)
कापड़िया जी ने यद्यपि कोई चर्चा अष्टमहाभय और उससे तारण की कल्पना के विषय में नहीं की है, फिर भी सोचा जाय तो प्रथम दृष्टि से ही वह निर्ग्रन्थ-दर्शन के अन्तर्गत हुई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । उत्तर की परम्परा के आगमों में तो क्या, वृत्त्यादि एवं आगमिक चूर्णि साहित्य में भी उसका कहीं उल्लेख नहीं है । दाक्षिणात्य परिपाटी के आगमस्थानीय या आगमतुल्य साहित्य, धवला ( प्रायः ईस्वी ८१६), जयधवला ( प्राय: ईस्वी ८३७) जैसी महती टीकाओं, हरिवंशपुराण ( ईस्वी ७८८), आदिपुराण ( ईस्वी ८३७ पश्चात् ) तथा उत्तरपुराण (ईस्वी ८५० बाद) जैसे प्राचीन पुराणों में भी नहीं । न ही कोई उल्लेख वरांगचरित ( ईस्वी ७वीं शती) में और बाद की महत्त्वपूर्ण चरितात्मक रचनाओं में मिलता । इसका स्रोत या तो कोई ब्राह्मणीय या बौद्ध ही हो सकता है ।
महायानिक सम्प्रदायों में बोधिसत्त्व को महाकरुणानिधान माना गया है और ईस्वी तीसरी-चौथी शताब्दी में उनके 'अवलोकितेश्वर' नामक स्वरूप की कल्पना की गई है, जिसका सम्मूर्त प्रमाण प्राय: ईस्वी पंचम शती के आखिरी प्रहर में खोदे गये अजन्ता के लयनमन्दिरों में और तत्पश्चात् अनुवाकाटक युग के कृष्णगिरि ( कन्हेरी), एलापुर ( इलोरा ) एवं औरंगाबाद के ऐसे ही गुहा - मन्दिरों में और उसके बाद पूर्व भारत में कलिंग देश एवं बंग-मगध के मध्यकाल के शिल्पों में बहुतायत है । इनमें से कुछ ऐसे हैं जो अष्टमहाभयत्राण के प्रसंगचित्रों से परिवृत्त हैं । महायान परम्परा का प्रसिद्ध ग्रन्थ सद्धर्मपुण्डरीक ही शायद ऐसा प्रथम ग्रन्थ है, जहाँ अवलोकितेश्वर के नामस्मरण मात्र से नष्ट होने वाले प्राय: द्वादश भयों के बारे में स्तुत्यात्मक पद्य कुछ अपने ही ढंग की संस्कृत भाषा में बनाये गये हैं । यथा : सचि अन्निखदाय पातयेत् घतनार्थाय प्रदुष्टमानसः ।
स्मरतो अवलोकितेश्वरं अभिषिक्तो इव अग्नि शाम्यति ।।५।।
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सचि सागरदुर्गि पातयेन्नागमकरसुरभूत आलये । स्मरतो अवलोकितेश्वरं जलराजे न कदापि सीदती ।। ६ ।।
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सचि मेरुतलातु पातयेद् घतनार्थाय प्रदुष्टमानसः । स्मरतो अवलोकितेश्वरं सूर्यभूतो व नभे प्रतिष्ठति ।।७।। वज्रामय पर्वतो यदि घतनार्थाय हि मूर्ध्नि ओषरेत् । स्मरतो अवलोकितेश्वरं रोमकूप न प्रभोन्ति हिंसितुम् ।।८।। सचि शत्रुगणैः परीवृतः शस्त्रहस्तैर्विहिंसचेतसैः । स्मरतो अवलोकितेश्वरं मैत्रचित्र तद् भोन्ति तत्क्षणम् ।।९।। सचि आघतने उपस्थितो वध्यघातन वशंगतो भवेत् । स्मरतो अवलोकितेश्वरं खण्डखण्ड तद् शस्त्र गच्छियुः ।। १० ।।
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