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________________ ७६ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र सकता । मध्ययुग में गृहस्थपर्याय में वणिक ज्ञातियों में जन्म लेने वाले अनेकों मुनि अच्छे सारस्वत थे, इसके अनेकों प्रमाण उपलब्ध हैं । अब आखिर में स्तोत्र एवं स्तोत्रकार से सम्बद्ध एक-दो और तथ्यों का निर्देश देंगे । इतनी शालीन, शानदार और बेनमून ही नहीं, लोकोत्तर रचना होते हुए भी उसमें खटकने वाली एक बात पर भी ध्यान केन्द्रित करना ज़रूरी है । मानतुंग वेदमार्ग छोड़कर श्रमणमार्ग में आये थे; इसलिए उनमें कुछ हद तक कट्टरता भी आ गई होगी ऐसा लगता है । प्रा० कापड़िया ने यथार्थ ही भक्तामर के २०२१ वें पद्य को “साम्प्रदायिक" घोषित किया है । इनमें से २० वाँ पद्य इस प्रकार है ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं __ नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ।। जिस ज़माने में मानतुंग रहे होंगे, ऐसी साम्प्रदायिक स्पर्धा का वातावरण ज़रूर रहा होगा, था ही । आज तो ऐसे विभाव का परिवहन करने में लज्जा का ही अनुभव हो सकता है । मानतुंगाचार्य यँ तो समन्वयवादी थे ऐसा पद्य संख्या २५-२६ से अनुमान होता है । यह देखते हए उन्होंने यदि २० वाँ पद्य न बनाया होता तो स्तोत्र की गरिमा पूर्णरूपेण बनी रहती । यद्यपि भगवान् शंकर से सम्बद्ध पौराणिक कथनों में राग, रौद्रता और साकल्य की कल्पना की गई है, पर आध्यात्मिक दृष्टि से वे गुणातीत, मायारहित, निष्कल, “परमशिव" एवं “महेश्वर" भी माने गये हैं । ठीक इसी तरह विष्णु को भी एक तरफ लीलामय और दूसरी ओर लीलातीत माना गया है । जिनेन्द्र के वीतराग होने से उनकी प्रतिमा में केवल कर्मरहित निश्चल स्थिति की ही कल्पना की गई है । वहाँ प्रशमरस को ही स्थान मिला। किन्तु इस कारण को लेकर हरि-हर को नीचे दर्जे का मानना मुश्किल है । आखिर दार्शनिक दृष्टि से दोनों में बहुत अंतर होते हुए भी अनेकान्त दृष्टि से इनके अंतिम तात्त्विक विभाव में विशेष अंतर नहीं है। डा० रुद्रदेव त्रिपाठी ने इस संदर्भ में जो विचार रखा है वह यहाँ हम उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत करेंगे । “क्रमश: २०-२१-२३ और २४ वें पद्य में हरिहरादि देवों से भी प्रभु को श्रेष्ठ व्यक्त करने की शैली एकांत-भक्ति पर आश्रित है और वह सर्वव्यापी भी है । चंडीशतक में बाण कवि ने भी देवी को शिव, सूर्य, इन्द्र, चन्द्र, वायु, कुबेर आदि देवों से श्रेष्ठ रूप में अभिव्यक्त किया है । यथा : विद्राणे रुद्रवन्दे सवितरि तरले वजिणि ध्वस्तवज्रे, जाताशः शशाङ्के विरमति मरुति व्यक्तवैरे कुबेरे । वैकुण्ठे कुण्ठितास्त्रे महिषमतिरूपं पौरूषोपघ्ननिघ्नं, निर्विघ्नं निघ्नती वः शमयतु दुरितं भूरिभावा भवानी ।। मयूर कवि ने सूर्यशतक में सूर्य देव को (८८ वें पद्य में) सभी देवों से विशिष्ट दिखाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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