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________________ भक्तामर का आंतरदर्शन तदुपरान्त ९३ एवं ९४ संख्यावाले पद्यों में शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवों से महान् एवं महच्छील बताकर प्रशंसा की है ।" यह कैफियत एक तरह से मानतुंगसूरि की साम्प्रदायिकता की तरफदारी में बचावनामा ज़रूर है, परन्तु हमें लगता है कि शाक्त एवं दूसरे वेद पंथी आखिर एक ही धर्म-संस्कार (ब्राह्मणीय पुराणमार्ग) के नाते जुड़े हुए थे, जबकि श्रमणमार्गी निर्ग्रन्थ उनसे भिन्न है और तत्त्वत: कुछ बातों में दूर भी पड़ जाता है । इसलिए ऊपर जो कुछ कह गये हैं उसकी यथार्थता, मुकम्मिलपन पर हम कायम हैं, और दृष्टिकोण को बदल देने का इस वक्त कोई ठोस कारण भी उपस्थित नहीं है । भक्तामरस्तोत्र की रचना काव्य-लक्षण की दृष्टि से तो सर्वांग-सरस है; पर उसमें कहीं-कहीं चरणान्त समास है, जो उसको कंठस्थ करने एवं उद्गान करने में कठिनाई का अनुभव कराता है । तन्त्री महाशय रमणलाल शाह ने इस विषय में विचार किया है, और इन उलझनों से निपटने की प्रक्रिया बताई है, जो वहाँ देख लेनी चाहिए । टिप्पणियाँ: १. कटारिया, जै० नि० २०, पृ० ३३४-३३५. २. कापड़िया, भक्तामर०, पृ० २७. ३. कटारिया, पृ० ३३६. ४. रमणलाल ची० शाह, "भक्तामर स्तोत्र - केटलाक प्रश्नो," प्रबुद्ध जीवन, १६-४-८७, पृ० २०५. ५. मधुररवा परभृतिका भ्रमरी च विबुद्धचूतसंगिन्यौ । - मालविकाग्निमित्र, ४.२' चूतेन संश्रितवती नवमालिकेयम् अस्यामहं त्वयि च संप्रति वीतचिन्तः । - अभिज्ञान शाकुन्तल, ४.१२' चतानां चिरनिर्गतापि कलिका बध्नाति न स्वं रजः । - अभिज्ञान शाकुन्तल ६.४' चूतप्रवालोष्ठमलंचकार - कुमारसंभव ३.३०' चूताङ्कुरास्वाद कषायकण्ठः - कुमारसंभव ३.३२' निवपेः सहकारमञ्जरी: प्रियचूतप्रसवो हि ते सखा' ' - कुमारसंभव ४.३८' ये तीनों ग्रन्थ कालिदास-गन्थावली, सं० रेवाप्रसाद-द्विवेदी, वाराणसी १९८६ में संगृहित है, जिससे यहाँ उद्धत किया गया है ।) ६. "प्रस्तावना," स०-भ०-२०, पृ० २७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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