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भक्तामर का आंतरदर्शन
इसके अतिरिक्त स्तोत्र के २३ वें पद्य में श्रुतिवाक्य का खंड समाविष्ट हुआ है ।
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस
मादित्यवर्णममलं तमस: परस्तात् । और यह उक्ति ऋग्वेद में आने वाले 'ॐ नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमर्हन्तमादित्य वर्ण तमस: परस्तात् स्वाहा ।।' तथा शुक्लयजुर्वेद् (अ० ३१-१८) के 'पुरुषसूक्त' में मिलती है । यथा :
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।। श्रीमद्भगवद्गीता (अ० ८.९) में भी वह वाक्यांश प्राप्त होता है । यथा :
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद् यः ।
सर्वस्य धातारमचित्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।। (पं० अमृतलाल शास्त्री का कथन भी महदंशेन कापड़िया जी के कथन से मिलता-जुलता है)।
इस तथ्य के अतिरिक्त २६ वें पद्य में भी "कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं,' तथा १५ वें पद्य में भी “कल्पान्तकालमरुता चलिताऽचलेन" आता है । निर्ग्रन्थ दर्शन में कालचक्र दर्शक ‘कल्प' शब्द के स्थान पर विशेषकर 'आरा' या 'आरक' का प्रयोग होता है और सुख, समृद्धि, शील आदि की कालगति की दिशा एवं आरक के क्रमानुसार न्यूनाधिकता तो मानी है, लेकिन वहाँ पूर्णतया प्रलय की तो कल्पना नहीं है । यह भी स्तोत्रकर्ता मूलत: पुराणानुसारी ब्राह्मणधर्मी हों, ऐसी धारणा के प्रति ले जाता है; फिर भी श्रीयुत् धीरजलाल शाह का कहना इससे विरुद्ध है : “परन्तु इतना ध्यान में रखना चाहिए कि अन्य आचार्यों ने भी अपनी कृतियों में वेद-उपनिषद्-ब्राह्मणग्रंथ आदि के वाक्यों को गुम्फित किया है; फिर भी वे ब्राह्मणजाति में जन्मे हुए नहीं थे । जैसा कि कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य, उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज इत्यादि । तो भी इतनी बात तो निश्चित ही है कि श्रीमानतुंगसूरि महाविद्वान् थे । और उन्होंने जैनोपरान्त जैनेतर शास्त्रों का भी अध्ययन अच्छी तरह किया था, जिसका प्रतिबिम्ब इस स्तोत्र पर पड़ा है । इसके अतिरिक्त काव्यशक्ति भी उनको प्रारम्भ से ही वरित होगी, वर्ना ऐसा अद्भुत काव्य वे एकाएक कैसे रच सकते थे।" धीरजलाल जी की पहली बात हमें प्रमाणभूत नहीं लगती । हेमचन्द्राचार्य एवं उपाध्याय यशोविजय जी वणिक जाति के थे यह बात सही है, पर वे भक्तामरकार से बहुत बाद में हुए हैं । हेमचन्द्र प्राय: पांच सौ साल बाद और यशोविजयजी तो करीब ग्यारह सौ साल पश्चात । दोनों के सामने भक्तामरस्तोत्र रहा था और दोनों पर यदि सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र की कृतियों का प्रभाव पड़ सकता था तो क्या भक्तामर का नहीं, ऐसा हम कह सकते हैं ? आखिर भक्तामरस्तोत्रकार के समय की और आचार्य हेमचन्द्र तथा यशोविजय जी के समय की ऐतिहासिक एवं सामाजिक स्थिति के बीच काफ़ी अंतर हो चुका था । जहाँ समान भूमिका का अभाव ही है वहाँ दोनों को एक पल्ले में रखने के प्रयास से कोई फलदायी परिणाम नहीं निकल
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