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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
का प्रयोग तो अधिकतर है ही । (पर) पुनरुक्तवदाभास भी कहीं-कहीं मिल जाता है । एक स्थान पर चित्रालंकार की भी रचना संभवित हो सकती है जिसके लिए छब्बीसवाँ पद्य-'तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ !' -आदि संग्रहणीय है । इस पद्य को चतुर्दल कमलबंध, स्वस्तिकबंध, चतुर्-चक्रबन्ध, पुष्पबंध या वृक्षबन्ध आदि चित्रबंधों की आकृति में ढाला जा सकता है ।" "इस तरह स्तोत्र के पद्यों से शब्द के दोनों धर्म-संगीतधर्म एवं चित्रधर्म-की सार्थकता सिद्ध होती है । इसके साथ ही भाषागत प्रयोग के वैशिष्ट्य से अर्थ को विचित्र ध्वनितरंग द्वारा दिया गया विस्तार तथा 'कल्पान्तकाल पवनोद्धतनक्रचक्र' जैसे पदों के प्रयोग से भाव प्रकाशन की स्वछन्दता एवं संगीतात्मक अभिव्यंजना सहज रूप से प्रकट हो गई है२० ।” “अर्थालंकारों में 'उपमा' प्रमुख अलंकार है ।" "इसलिए भक्तामरस्तोत्र में अन्य अर्थालंकारों की अपेक्षा उपमालंकार ने अधिक स्थान प्राप्त किया है । करीब बीस से अधिक पद्यों में आने वाले इस अलंकार को व्यक्त करने के लिए आचार्य जी ने दृष्टांत, व्यतिरेक, प्रतिवस्तूपमा, अर्थापत्ति, व्याजस्तुति, काव्यलिंग, रूपक आदि अलंकारों का सहारा लिया है। इन सबों में अर्थान्तरन्यास विशेष प्रयुक्त हुआ है, जिससे ऐसा कह सकते हैं कि कालिदास की तरह यह अलंकार मानतुंगसूरि को भी प्रिय रहा है । उदाहरण के माध्यम से अपने कथनों की पुष्टि करने की काबीलियत श्री सूरि जी की तर्कशक्ति को व्यक्त करती है, तो उसके संग ही अपनी विनम्रता दिखाकर, आत्मप्रेरणापूर्वक, स्तुति में हुए प्रवर्तन उनकी जिनेश्वर के प्रति अहैतुकी भक्ति को सिद्ध करती है । ‘सामान्य' के उपयोग से 'विशेष' का समर्थन, अंत:प्रेरित भाव, कौशलपूर्ण स्तुति, शब्दों का कलात्मक प्रयोग और वर्ण्य-वस्तु अथवा भावों को मूर्तरूप देने में अलंकारों की ओजपूर्ण अभिव्यक्ति श्री मानतुंगसूरि को काव्यकारों में, कविशिरोमणि के रूप में प्रतिष्ठित कर देती है ।"
तत्पश्चात् त्रिपाठी जी ने स्तोत्र में उपलब्ध उपमाओं के मूलभूत तत्त्वों का विस्तार से विवरण दिया है । और उसके बाद उसके विशिष्ट पद्यों की पुष्पदन्त के महिम्नस्तोत्र से, कालिदास के रघुवंश एवं कुमारसंभव के साथ तथा मातगप्त की किसी अनुपलब्ध कृति के एक पद्य के साथ. अश्वघोष के सौन्दरनन्दकाव्य के पद्य के भाव से, और बाण के चंडीशतक एवं मयूर के सूर्यशतक के पद्यों से तुलना की है२३ । वस्तुतया डा० त्रिपाठी की समीक्षा में अनेक रसप्रद एवं उपयुक्त बातें समाविष्ट हैं, जो यहाँ स्थलसंकोच के कारण हमें छोड़ देनी पड़ी हैं ।
कवि मानतुंग की काव्य-प्रतिभा का पूर्ण दर्शन हमें उनकी विभूतियों एवं अष्ट महाभयों की अत्यन्त चारु और चित्रशील वर्णना में मिलता है। उन पद्यों में छन्दोलय भी पराकाष्ठा पर पहुँच गया है।
मानतुंगाचार्य पूर्वाश्रम में वेदवादी रहे होंगे ऐसे कुछ संकेत स्तोत्र में यत्र-तत्र मिलते हैं । कापड़िया जी ने इस विषय में विशेषकर दो मुद्दों पर ध्यान खींचा था । २१ वें पद्य में मानतुंगसूरि अपने हरि-हर लक्षित पूर्व दर्शन का उल्लेख करते हैं । यथा :
मन्ये वरं हरि-हरादय-एव दृष्टा । दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।।
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