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________________ भक्तामर का आंतरदर्शन उपर्युक्त दोनों विद्वानों के अतिरिक्त डा० रुद्रदेव त्रिपाठी ने भक्तामरस्तोत्र की काव्यशास्त्रीय समीक्षा बहुत ही गहराई से प्रायः २१ पृष्ठ - प्रमाण की है, जिसमें से कुछ अंश यहाँ पेश करेंगे । स्तोत्र के “पद-पद में प्रासादिक भाषाप्रवाह, विचारों को संग्रह कर रखने वाली वर्णों की स्वाभाविक मैत्री, विषय-वस्तु को वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने वाली वाक्ययोजना, अनिर्वचनीय रस परिपाक, रसानुभूति को आभासित कराने वाला संगीत, उपयुक्त छंद के संग शब्दों की मधुर झङ्कार एवं अर्थोज्ज्वलता को प्रत्यक्ष करने वाली वचन - भंगिमा से सभर अलंकार इस स्तोत्र की लोकप्रियता के संग ही काव्यरसिकों को भी रससिक्त कराने वाला है" । " " शास्त्रकारों ने छन्द को काव्य का शरीर भी कहा है और इसलिए ही उपयुक्त छन्द के बिना भावों का उत्तम विकास नहीं हो सकता । 'छदि' धातु का अर्थ आह्लाद है और वह आह्लाद गणबद्ध वर्णसंयोजन, नियमित यति, वेग, विराम, चरण-विस्तार, वर्णमैत्री, सजातीयता, स्थानमैत्री, नादसौंदर्य, इत्यादि तत्त्व उत्तरोत्तर सुखानुभूति - रसानुभूति में सहायक बनता है । भक्तामरस्तोत्र में ये विशेषताएँ स्थान-स्थान पर देखने को मिलती हैं" ।” (डा० त्रिपाठी ने स्तोत्र में से कुछ पद्य उदाहरण के रूप में वहाँ प्रस्तुत किया है ।) स्तोत्र के अंत: भूत रस की मीमांसा भी डा० त्रिपाठी ने विस्तार से की । इनका कहना है कि " स्तुतियों में देवादिविषयक रति होती है । वह रति निर्वेद - प्रधान होने से शम को स्थायी भाव में परिणत करके शांत रस का पोषण करती है ।" इसलिए "ऐसे स्तोत्रों को भक्तिरस का काव्य भी कहा जा सकता है, क्योंकि प्राचीन आचार्य अनुराग को भक्तिरस का स्थायीभाव मानते हैं३ ।” प्रबोध, विरक्ति, ध्यानजन्य तन्मयता, उदासीनता, परमात्मा के प्रति परम अनुरक्ति आदि कारणों से तथा श्रवण, कीर्तन, सेवन, अर्चन, आदि रतिभावना- प्रवर्तक उपांगों से दास्य अथवा आत्म-निवेदन स्वरूप रतिभाव ७३ अंगों का परिपोषण हो जाने से यह स्तोत्र भी भक्तिरस का उत्तम उदाहरण है और अलौकिक गुणसम्पन्न भगवान श्री ऋषभनाथ को सर्वस्व अर्पण करने वाली दृढ़ निष्ठा इसमें कारणभूत है ४ ।" यह विशिष्ट रतिभाव, परमात्मा के प्रति अनुरक्ति " दूसरे शब्दों में 'अहैतुकी भक्ति' कहलाती है जो मानतुंग सूरि द्वारा अपने स्तोत्र में अभिव्यक्त हुई है" । " ― Jain Education International आगे चलकर डा० त्रिपाठी ने स्तोत्र में प्रयोजित अलंकार सम्बन्धी चर्चा की है । मानतुंग ने स्तोत्र में कहीं भी यमक का प्रयोग नहीं किया है, और इस विषय पर टिप्पणी करते हुए त्रिपाठी जी का कहना है कि मानतुंग भी आचार्य भामह की तरह यमक को " रस में गौण मानने वाले हों ऐसा लगता है ९६ ।” “अलंकार के विषय में कोई खास क्रमबद्धता या किसी प्रकार के दुराग्रह का दर्शन स्तोत्र में कहीं नहीं देखने को मिलता ।" " शब्दालंकार में सौ प्रथम अनुप्रास है जो वर्णमैत्री, स्थानमैत्री या अनुरणन के प्राधान्य से युक्त हैं । स्तोत्र का कोई भी पद्य अनुप्रास से रहित नहीं । स्थान-स्थान पर छेकानुप्रास या वृत्यानुप्रास तो है ही, जिसकी वर्णमैत्री एवं स्थानमैत्री से उत्पादित नादानुसंधान इसमें प्राण की जो आपूर्ति करता है, वह भी अद्भुत है" । (डा० त्रिपाठी ने इस कथन को सिद्ध करने के लिए स्तोत्र से कुछ उदाहरण दिए हैं । कहीं-कहीं श्लेषालंकार का आभास देने वाले शब्दों के दृष्टांत भी पेश किए हैं ।) आगे बढ़ते हुए त्रिपाठी जी का कहना है कि स्तोत्र में “ वक्रोक्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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