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भक्तामर की पद्यसंख्या
अनुसार, मूल में क्षति मानकर उसकी पूर्त्यर्थ नये चार पद्य जरूर बना दिये थे, जिसके फलस्वरूप यह ज़बरदस्त उलझन पैदा हुई है और वह बहस इतनी गैरसमझन ( misunderstanding) का कारण बन गई है । इसीलिए तो हमें समग्र पहलुओं को लेकर इतनी लम्बी चर्चा में उतरना पड़ा है ।
कटारिया जी यह नहीं बता पाये हैं कि गुच्छक क्यों बन गया, किसने बना दिया और यह चाप छोड़नेवाले “किसी ” कौन थे । इन्हीं चार अतिरिक्त पद्यों के विविध गुच्छकों को देखकर मूल ४८ का ४४ पद्य बना देने वाले यदि श्वेताम्बर रहे तो आश्चर्य है कि विशेष गुच्छक श्वेताम्बरों के बजाय दिगम्बरों के यहाँ ही वे सब संरक्षित क्यों हैं ? सवाल यह भी तो उठता है कि जब ४८ पद्ययुक्त रचना मौलिक ही थी तो दिगम्बर सम्प्रदाय के दायरे में और गुच्छक के बन जाने का मौका ही कहाँ रहता था ? यदि माना जाय कि श्वेताम्बरों की ४४ पद्य वाली प्रतियों को देखकर ये सब गुच्छक बन गये तो सवाल उठता है कि ये सब कब बने थे ? पहले ४८ पद्य रहे ही थे, फिर किसी भी कारणवश 'किसी ' ने चार पद्य हटाकर ४४ बना दिया, जिसे देखकर श्वेताम्बरों में यह ४४ पद्य वाली प्रथा चल पड़ी । फिर इससे पैदा हुई विचित्र परिस्थिति से छुटकारा पाने के लिए, ऐसी प्रतियाँ देख कर, नये गुच्छक बना दिये गये; यह सब किस प्रकार का तार्किक सिलसिला है, समझ में नहीं आता ! हमें तो लगता है कि यह सब भ्रान्तिचक्र ही है; इससे सत्य घटना का स्फोट नहीं होता। असल में दिगम्बरों के सामने भी मध्ययुग तक ४४ पद्यों वाली ही रचना थी । इसमें चार प्रातिहार्यों की अनुपस्थिति मानकर उसको पूर्ण करने की चेष्टा वहाँ अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा जुदे-जुदे स्थानों में की गई । यह बात इतनी साफ़ है कि इसका स्पष्ट स्वीकार और निर्देश करने के बजाय कई और दिशाओं में विद्वान् घूम रहे हैं और मूल मुद्दे को घुमाते रहे हैं ।
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एक और भी बात विचारणीय है । दिगम्बर प्रभाचन्द्राचार्य ने भक्तामर के जिस पाठ पर अपनी टीका की है उसमें ४४ पद्य हैं या ४८ ? यदि ४८ हो तो क्या विशेष ४ पद्य गम्भीर तार से शुरू होनेवाला गुच्छक था ? यह मुद्दा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है; लेकिन पं० अजितकुमार शास्त्री, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० अमृतलाल शास्त्री, श्रीमन् कटारीया और विद्यावारिधि ज्योतिप्रसाद जैन ने, किसी भी कारणवश इसकी चर्चा तो नहीं की, साथ ही कीसी तरह का परोक्ष निर्देश भी नही दिया ! (डा० कापडिया ने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा वह इस लिए कि उनके देखने में सन्दर्भगत मूल टीका आय ही नही थी । हमने भी इस बारे में कुछ तलाश की थी, पर कोई भी मित्र पता नहीं दे पाया । वह टीका पूरे स्तोत्र पर थी या नही इसका पता पहले लग जाना आवश्यक हैं ।)
मुनिराज दर्शनविजय जी का इस विषय में क्या कथन रहा, वह अब देखना चाहेंगे । आपका विश्वास था कि “इन सब स्तोत्रों को पढ़कर कोई भी विद्वान् आपके ( मानतुंग के) श्वेताम्बर होने का दावा कर सकता है । इसके लिए लोकप्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र के कतिपय श्लोकों के निम्नोक्त तथ्य विचारणीय
काव्य २५ में देवों के नाम से तीर्थंकर भगवान की तारीफ की है । इसमें औपचारिक उपमा है । दिगम्बर सम्प्रदाय में बाह्य उपचार इष्ट नहीं है । काव्य २९ में तीर्थंकर भगवान को सिंहासन में
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