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________________ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र रहे हुए बतलाए हैं (कल्याणमन्दिरस्तोत्र काव्य २३ में भी यही निर्देश है) दिगम्बर समाज भगवान को सिंहासन से भिन्न ऊपर रहे हुए मानता है, जबकि इस काव्य में प्रभु और सिंहासन का सम्बन्ध बताया गया है । काव्य २८, २९, ३०, ३१ में प्रभु की देवकृत विभूतियों - अशोकवृक्ष, सिंहासन, छत्र और चामर का वर्णन है । तीर्थंकर की स्तुति में इस निकटवर्ती विभूति का वर्णन इष्ट माना गया है । श्री पार्श्वनाथ भगवान के ऊपर शेषनाग की फणा की जाती है, वह भी निजी विभूति है । जैसे इन विभूतियों के होने पर भी तीर्थंकर वीतराग है, वैसे ही अभिषेक, पुष्पमाला, आंगीरचना, रक्षारोहण और करोड़ों रुपये के मन्दिर वगैरह विभूति के होने पर भी वीतराग, वीतराग ही है । दिगम्बर सम्प्रदाय इन बातों से सहमत नहीं है । ५४ इस स्तोत्र में वस्तुत: महिमादर्शक दूरवर्ती विभूति जैसे - पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, भामण्डल और दुन्दुभि का वर्णन नहीं किया गया है । उस वर्णन का अभाव और निकटवर्ती विभूति के सद्भाव से " अंगपूजा" का पक्ष सप्रमाण हो जाता है । यह दिगम्बर विद्वानों को खटका और उन्होंने नये ४ काव्य बनाकर इस स्तोत्र में जोड़ दिये । असल में भक्तामर स्तोत्र के ४४ काव्य हैं, विक्रम की १२वीं शताब्दी के भक्तामर वृत्तिकार ने ४४ काव्य की वृत्ति की है । और आज भी श्वेताम्बर समाज ४४ काव्य को प्रमाण मानता है परन्तु दिगम्बर समाज ४८ काव्यों को मानता है । काव्य २९ में प्रभु के भूमि पर चरणस्थापन और देवकृत कमलरचना का वर्णन है । दिगम्बर समाज योजन प्रमाण उच्च कमलों पर प्रभु का विहार मानता है । काव्य ३३ में निकटवर्ती विभूतियों की तारीफ़ है । दिगम्बर समाज निकटवर्ती विभूतिमहिमादर्शक क्रिया—अंगपूजा को वीतराग का दूषणरूप मानता है । काव्य ३४ में भयभेदकत्व वर्णित किया है । काव्य ४४ में माला धारण करने का निर्देश है। दिगम्बर समाज इससे भी एतराज़ करता I इन सब काव्यों से आचार्य मानतुंगसूरि का श्वेताम्बर होना सिद्ध होता है । दिगम्बर समाज आप के भक्तामर स्तोत्र पर मुग्ध होकर उसे शास्त्र की श्रेणी में दाखिल करके आपको दिगम्बर आचार्य मान लेता है । दिगम्बर आचार्यों ने आपकी जीवनी को स्वीकारा है, सिर्फ उनमें से आपके गच्छ, गुरु, शिष्य और दूसरी ग्रन्थ-रचना को उड़ा दिया है । महापुरुष के अच्छे ग्रन्थ को अपनाना न्याय है किन्तु उनके ऊपर अपने सम्प्रदाय की मोहर छाप लगा देना तो किसी तरह उचित नहीं है । I सारांश यह कि - "आ० मानतुंगसूरि श्वेताम्बर आचार्य हैं और आपको तथा आपके भक्तामर स्तोत्र को दिगम्बर सम्प्रदाय ने स्वीकारा है" ।" मुनिजी की, स्तोत्र को श्वेताम्बर ठहराने की प्राय: एक-एक दलील का दिगम्बर विद्वान् आसानी से खंडन कर सकते हैं । १) दिगम्बर सम्प्रदाय तीर्थंकरों की इष्टदेवों के नाम से अर्थात् " बाह्योपचार उपमा" का सहारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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