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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
सत्सङ्गताविह सतां जगती समस्ता
मामोदनां विहसतामुदयेन धाम्ना ।।१।। द्वेधाऽपि दुस्तरतमाश्रम-विप्रणाशा
दुद्यत्सहस्रकर-मण्डल-सम्भ्रमेण । वक्षे प्रभोर्वपुषि काञ्चन काञ्चनानां
प्रोद्धोद्धतं भवति कस्य न मानसानाम् ।।२।। दिव्यध्वनिर्ध्वनितदिग्वलयस्तवाऽऽर्हन्
व्याख्यातरुत्सुक्य तेल्लशिवाध्वनोनात् । तत्त्वाऽर्थदेशनविधौ ननु सर्वजन्तु
र्भाषा विशेषमधुरः सुरसार्थ ये ह्य ।।३।। विश्वेक यत्र भटमोह महीमहेन्द्र
सद्यो जिगाय भगवान् निगदनिवेयम् । सन्तर्पयन युगपदे मव यानि पंसां
मन्द्रध्वनिर्नदति दुन्दुभिरुच्चकैस्ते ।।४।। नोट- ये भिन्न चार अतिरिक्त श्लोक और मिलते हैं । भक्तामर स्तोत्र के ३२-३३-३४-३५ श्लोक में जिन ४ प्रातिहार्यों का वर्णन है वही इनमें हैं, ये अर्थकी दृष्टि से काफी सदोष हैं अत: कविकृत ज्ञात नहीं होते । इस प्रकार के २-३ तरह के श्लोक मिलने से किसी ने निर्णयाभाव में सबको ही छोड़ दिया हो (जिससे ४ प्रातिहार्य छूट गये) और एक बार यह परंपरा चल पड़ी तो फिर श्वेताम्बर समाज में रूढ़ ही हो गई जो आज श्वेताम्बर समाज के ३२ से ३५ तक के चार श्लोक न मानने का कारण प्रतीत होती है ।
कटारिया जी ने जो ये चार विशेष पद्य उपस्थित किए हैं वे मुख्यत: वही हैं जो साराभाई नवाब द्वारा प्रस्तुत किये गये थे । दोनों के बीच कहीं-कहीं पाठांतर है, जो इन्हीं पद्यों की दूसरी वाचना के अन्तर्गत करीब मिल जाता है । उनका अवलोकन है कि “इस प्रकार दो-तीन तरह के श्लोक मिलने से किसी ने निर्णयाभाव में सबको ही छोड़ दिया हो जिससे चार प्रातिहार्य छूट गये और एक बार यह परम्परा चल पड़ी तो फिर श्वेताम्बर समाज में रूढ़ ही हो गई जो आज श्वेताम्बर समाज के ३२ से ३५ तक चार श्लोक न मानने का कारण प्रतीत होती है:" लेकिन इससे सहमत होना मुश्किल है । भक्तामर के अनेक श्वेताम्बर वृत्तिकारों में से ज़रूर किसी न किसी ने अतिरिक्त पद्यों वाली घटना का उल्लेख तो किया ही होता । ऊपर हम व्यापक रूप से, समग्र समस्या को उसकी अखिलाई में देख आए हैं, और उसको यहाँ दोहराना अनावश्यक है । ये सभी गुच्छक जाली तो हैं ही, तदुपरांत काफ़ी पश्चात्कालीन भी हैं । मूल भक्तामरस्तोत्र के संग किसी का मेल है ही नहीं; इसीलिए “किसी" ने कुछ नहीं छोड़ा है । हाँ, अनेक दिगम्बर कर्ताओं ने अपनी ओर से, अपनी मति-शक्ति-गति के
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