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भक्तामर की पद्यसंख्या
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को लौकागच्छीय साधु मानने का नाहटा जी के पास क्या आधार है, यह उन्होंने कहीं सूचित नहीं किया। रत्नसिंह स्वयं अपने को सिंह संघ का अनुयायी बता रहे हैं । (श्रीसिंहसंघसुविनेयक-धर्मसिंह पादारविन्दमधुलिह-मुनिरत्नसिंह: ) स्व० पं० नाथूराम प्रेमी (जै० सा० इ० पृ० ४९४) इनका परिचय दे चुके हैं । हमारा अनुमान है, पाहुड दोहा (अपभ्रंश) के कर्ता मुनि रामसिंह जिनका समय नाहटा जी भी ११वीं शती का मध्य स्वीकार करते हैं, की ही परम्परा में उपरोक्त धर्मसिंह और रत्नसिंह हुए हैं। सिंह संघ दिगम्बर आम्नाय का ही एक संघ था और १२वीं-१३वीं शती के बाद उसका कोई उल्लेख नहीं देखने में आया। अत: सम्भावना है कि मुनि रत्नसिंह और उनका प्राणप्रिय काव्य १२वीं या १३वीं शती का हो । अमृतलाल जी ने एक अन्य समस्यापूर्ति काव्य ‘भक्तामर शतद्वयी' का भी उल्लेख किया है और बताया है कि उससे भी ४८ संख्या का समर्थन होता है किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि यह दिग० रचना है या श्वे० । नाहटा जी भी इस विषय में मौन हो गये । ऐसा लगता है कि इसके रचयिता कोई श्वे० विद्वान् ही हैं । यदि ऐसा है तो श्वेताम्बर परम्परा में भी ४८ श्लोकी पाठ के प्रचलित रहने का समर्थन होता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही स्थानकवासी आदि उपसम्प्रदायों में ४८ श्लोकी पाठ प्रचलित है। तीसरे, जैसा कि शास्त्री जी ने स्पष्ट किया है और नाहटाजी ने भी स्वीकार किया है, विवक्षित चार पद्यों के न रहने से स्तोत्र में आठ प्रातिहार्यों में से केवल चार का ही उल्लेख रह जायेगा। जिनेन्द्र के अष्ट-प्रातिहार्य सुप्रसिद्ध एवं उभय सम्प्रदाय मान्य हैं, तथा भक्तामरस्तोत्र की ही भाँति उभय सम्प्रदाय में मान्य कल्याणमन्दिर स्तोत्र में भी आठों प्रातिहार्यों का वर्णन है । कोई कारण समझ में नहीं आता कि स्तोत्रकार चार का ही वर्णन करके क्यों रुक जाते ?"५२
“अस्तु इस विषय में कोई संदेह नहीं है कि भक्तामर स्तोत्र जैनों के सभी सम्प्रदायों में अत्यंत लोकप्रिय स्तोत्र है, इसके प्रचार की प्राचीनता यदि श्वे० परम्परा में १३वीं १४वीं शती तक पहुँचती है तो दिगम्बर समाज में उससे कम नहीं, यदि श्वे० परम्परा में उस पर अनेक कृतियाँ रची गईं तो दिग० लेखकों की भी एक दर्जन से अधिक कृतियों का हम ऊपर उल्लेख कर आये हैं, और भी हो सकती हैं । प्राप्त प्रतियों की प्राचीनता कहीं भी छ:-सात सौ वर्ष से अधिक नहीं है - केवल ताड़पत्र पर होने से तो कोई प्राचीन नहीं होती । अतएव, यह कहना अत्यंत कठिन है कि स्तोत्र के मुख्यरूप में ४८ पद्य थे, या ४४, यद्यपि ४८ पद्यों से ही वह पूर्णता को प्राप्त होता है, अन्यथा अपूर्ण रहता है । उन चारों पद्यों में कोई ऐसी बात भी नहीं कि किसी की भी साम्प्रदायिकता को ठेस लगती हो । ऐसी स्थिति में क्या अन्तर पड़ता है कि किसी सम्प्रदाय में उसकी मान्यता की आपेक्षिक प्राचीनता सौ-पचास वर्ष कम या अधिक है । हमारी समझ से तो भक्तप्रवर मानतुङ्ग का यह अप्रतिम स्तोत्र जैन मात्र को भावनात्मक एकसूत्रता में बांधने वाली एक सुन्दर एवं उत्तम कड़ी है । ऐसी जितनी चीजें, जो सबको समान रूप से ग्राह्य हों, जितनी उजागर की जाय और प्रचार में लायी जाय, जिनशासन के लिए श्रेयस्कर होगा । ऐसी सर्वग्राह्य चीजों के विषय में साम्प्रदायिक दृष्टि से सोचना-समझना भी शायद ठीक नहीं होगा३ ।"
इससे भी जो वे चाहते हैं उस लक्ष्य पर पहुंचना मुश्किल है । कारण हम बतायेंगे ।
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