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________________ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र १) रत्नसिंह-धर्मसिंह जैसे अभिधानधारी मुनियों तो दिगम्बर परम्परा में मिलते नहीं हैं । दूसरी ओर श्वेताम्बरों में ऐसे नामधारी मुनि ईस्वी १५वीं से १८वीं तक हुए हैं (हाँ ! नाहटा जी ने प्राणप्रियकाव्यकार धर्मसिंह को लोंकागच्छीय मान लिया है, वह भ्रान्तिमूलक है । उस धर्मसिंह मुनि के गुरु का नाम खेमकर्ण था ।) फिलहाल प्राणप्रिय-काव्यकार को सिंह संघ का मुनि माना जाय तो भी वे कब हुए उसका अंदाज़ा एकदम सरल नहीं । ईस्वी ११वीं शती में होने वाले, अपभ्रंश में दोहा के कर्ता रामसिंह के अन्वय में ये मुनि हुए होंगे, यह कल्पना मात्र है । पहले तो प्राणप्रिय-काव्य की शैली देखने से ऐसा लगता ही नहीं कि वह मध्यकालीन कृति है । पुराने काव्यों पर पादपूर्ति रूपेण काव्यों की रचना करने के शौकीन श्वेताम्बर आचार्यों ने भी भक्तामर पर ऐसे काव्यों को ईस्वी १६वीं शताब्दी के अन्त से पहले रचा ही नहीं, यह बड़ा आश्चर्य है । यदि प्राणप्रिय-काव्य ईस्वी १२वीं-१३वीं की रचना है, ऐसा माना ही जाय तो वह देखकर श्वेताम्बरों ने उससे कम से कम १४वीं-१५वीं शती में भी प्रेरणा क्यों नहीं ली वह समझना बहुत मुश्किल है । (और दिगंबरोने बाद में एक भी ऐसी रचना नहीं की।) प्रेमी जी ने यह काव्य प्रकाशित तो किया था, पर किसी पुरानी प्रति के आधार पर नहीं, बल्कि मुखपाठ सुन कर। दूसरी ओर कापड़िया जी ने उस काव्य की एक प्रति को सं० १७३० (ई० १६७४) होने का ज़िक्र किया है । अब इसको ईस्वी १२वीं-१३वीं शताब्दी की प्रतियों के बराबर या समकक्ष मानकर प्रमाणरूप ठहरवा देना इतिहास से सम्बद्ध सत्यान्वेषण में उपकारक कैसे सिद्ध हो सकता है, हमारी समझ से तो बाहर ही है । प्राणप्रिय-काव्य का आधार “गम्भीरतार०" वाले चार अतिरिक्त पद्यों वाली कृाते है । इसलिए, “गम्भीरतार०" पद्य क्षेपक होने पर भी कब बने होंगे, वह बात विचारणीय है । उसके द्वितीय पद्य के आखिरी चरण में जो “तति' शब्द आता है वह यों तो स्तुत्यादि काव्यों में खास देखने को नहीं मिलता । यह शब्द भी वहाँ निरर्थक न होते हुए पद में अक्षरों के खाली रहते स्थान को भर देने में कुछ हद तक उपयुक्त माना जाता हो ऐसा भी संभव है । ऐसी 'तति' शब्द की प्रयोगाश्रित प्रवृत्ति दिगम्बर भट्टारक एकसन्धि की जिनसंहिता (प्राय: ईस्वी १३००-१३२५) में कई जगह देखने को मिलती है । क्या वे चार सुप्रसिद्ध क्षेपक पद्य भट्टारक एकसन्धि के तो बनाये हुए नहीं हैं ? यदि यह सच है तो उन चार प्रक्षिप्त पद्यों का समय भी ईस्वी १४वीं के प्रारम्भ के करीब माना जा सकता है ? इन पद्यों की शैली मानतुंग के पद्यों की शैली से भिन्न होने के अलावा स्पष्टतया बहुत ही पश्चात्कालीन है । भक्तामर के अन्य सभी पद्यों के मुकाबले में काव्य तत्त्व की दृष्टि से वे निकृष्ट हैं ही, परन्तु वे ईस्वी १२वीं-१३वीं शताब्दी की दिगम्बर-श्वेताम्बर स्तुत्यात्मक रचनाएँ, जैसे कि कुमुदचन्द्र का कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं चिकूर द्वात्रिंशिका (प्राय: ईस्वी १२वीं शती प्रथम चरण), द्वितीय देवनन्दी का सिद्धप्रियस्तोत्र (प्राय: ईस्वी १२७५ या इसके पूर्व), राजगच्छीय रत्नाकर सूरि कृत आत्मगर्हास्तोत्र (प्राय: ईस्वी १२५०) आदि के सामने रखे जाय तो कक्षा में उससे उतरी हुई कोटि के दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में प्राणप्रियकाव्य, जिसमें ये क्षेपक पद्यों के चरण लिये हैं, ईस्वी १२-१३वीं शताब्दी में बने हों, किसी भी हालत में सम्भव नहीं । गम्भीरतारादि पद्य मूलकर्ता की रचना न होते हुए प्राय: ७०० साल बाद ही दाखिल कर दिया गया है । भट्टारक एकसन्धि तमिळलनाड़ के रहे होंगे । जिनसंहिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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