________________
मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
उनके औचित्य या अनौचित्य के विषय में कुछ भी आलोचना करना बेकार है । वे जो कुछ भी करें इसकी जिम्मेदारी उनके सिर पर और उनके द्वार पर ही रहती है । हम यहाँ जो चर्चा कर रहे हैं वह विश्व के ऐतिहासिक अन्वेषणां के स्वीकृत धोरणों (standards) पर आधारित है और तथ्यान्वेषण के परिप्रेक्ष्य में क्या सही हो सकता है, उपलब्ध प्रमाणों की बुनियाद पर क्या समीचीन लग रहा है, इतना ही कहना चाहते हैं । हम न दिगम्बर सम्प्रदाय को, न स्थानकवासी सम्प्रदाय को कुछ सलाह देने योग्य हैं, न देंगे कि आप " गम्भीरतार०" आदि ४ अतिरिक्त पद्यों को हटा दीजिए; न मंदिरमार्गी श्वेताम्बरों, न निर्ग्रन्थेतर विद्वद्जनों से आग्रह करेंगे कि आप उन चार विशेष पद्यों को स्वीकार कर लीजिए । जैसा कि ऊपर की गई लम्बी चर्चा में हम प्रमाणों के आधार पर देख आए हैं, मूलकर्त्ता को ४४ ही पद्य अपेक्षित रहे थे; अथवा आज जो उपलब्ध कृति है उसमें यदि मूल में ४८ पद्य रहे भी हों, ऐसा माना जाय तो भी, असल के चार पद्यों को तो लम्बे समय से गायब ही मानना पड़ेगा | अतिरिक्त चार पद्यवाले सभी गुच्छक मानतुंगाचार्य की मूल कृति में दिखाई देने वाली रोशनी और खूबसूरती से खाली हैं ।
1
४८
श्रीमान् अगरचन्द नाहटा जी ने पं० अमृतलाल शास्त्री के खास प्रश्न के उत्तर में श्वेताम्बर ग्रन्थभण्डारों में से प्राप्त भक्तामरस्तोत्र की उपलब्ध जो प्रतियाँ प्राचीन हैं, उनके सम्बन्ध में पूरी सूचना पेश की थी और इस पर महामान्यवर ज्योतिप्रसाद जैन ने अपना प्रतिभाव दो भिन्न भिन्न स्थान पर अभिव्यक्त किया है । एक के विषय में तो हम पीछे देख चुके हैं; दूसरा स्थानवाला अवलोकन यहाँ आगे उपस्थित किया जायेगा । भक्तामरस्तोत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ की प्राचीन प्रतियाँ पाटण, खंभात, जैसलमेर, और पुणे के ग्रन्थ-भण्डारों में हैं । जिनमें से पहले तीन में तो ताड़पत्रीय अनेक पोथियाँ हैं । पाटण - सूचि में लिपि पर अनुमित काल नहीं दिया गया है; और जिन पोथियों में लिपि का वर्ष उट्टंकित है उनमें नकल की गई अनेक कृतिओं में से एकाध आदर्श की हैं; इसको भक्तामर स्तोत्र का लिपि - काल माना नहीं जा सकता, जैसा नाहटा जी ने मान लिया था । पर खंभात और जैसलमेर की प्रतियों
लिए लिपि पर से अनुमित मितियाँ वहाँ सूचि-ग्रन्थों में दी गई हैं, जिससे हम अनुमान कर सकते हैं कि इनमें से जो प्राचीनतम हैं, ईस्वी १३वीं शताब्दी की हैं और किसी-किसी का ईस्वी १२वीं उत्तरार्ध का होना असंभव नहीं । ठीक यही बात खंभात के भंडार की तीन प्रतियों की भी है । वहाँ भी तीन में से सबसे प्राचीन १३वीं शती में लिपिबद्ध हुई हो ऐसा अनुमान हो सकता है और यही स्थिति पाटण प्रतियों के समय के विषय में भी माननी होगी । इस विषय में विद्वन्मुख्य ज्योतिप्रसाद जी का अवलोकन यहाँ अक्षरश: प्रस्तुत करके, बाद में हमें जो कुछ कहना है कहेंगे । सबसे पहले उन्होंने भक्तामर स्तोत्र अनुलक्षित जो दिगम्बर कृतियाँ बनी हैं उनका तौलवदेशीय नागचन्द्र मुनि की सं० १५३१ ( ईस्वी १४७५ ) में बनी हुई पञ्चस्तोत्र - टीका से लेकर सं० १८९१ / ईस्वी १८३५ तक का सिलसिलेवार ब्योरा दिया है; परन्तु इससे भक्तामर की दिगम्बर- मान्य गम्भीरतारादि पद्यों की प्राचीनता कैसे सिद्ध होती है, समझ में नहीं आता । वहाँ कृतियों की सूची दे देने के पश्चात् आगे चलकर आप श्रीमान् ने लिखा है : “इनके अतिरिक्त, सिंहान्वय के मुनि धर्मसिंह के शिष्य मुनि रत्नसिंह का प्राणप्रिय काव्य, जो ४८ श्लोकों की पादपूर्ति रूप है, उसे १८ वीं शती की रचना और उसके रचयिता रत्नसिंह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org