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भक्तामर की पद्यसंख्या
उन छोड़े हुए चार प्रातिहार्यों को कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें क्रमश: २५, २०, २४, तथा २१ नम्बर के श्लोकों में गुम्फित किया गया है ।
अत: श्वेताम्बर सम्प्रदायके सामने दो समस्याएँ हैं । एक तो यह कि, यदि कल्याणमन्दिर को यह पूर्णतया अपनाता हैं तो कल्याणमन्दिर की तरह तथा अपने सिद्धान्तानुसार भक्तामरस्तोत्र में भी आठों प्रातिहार्यों का वर्णन मानें तब उसे भक्तामर स्तोत्र के ४८ श्लोक मानने होंगे ।
दूसरी यह कि, यदि भक्तामरस्तोत्र में अपनी मान्यतानुसार चार प्रातिहार्य हों तो कल्याणमन्दिर में भी २०, २९, २४ तथा २५ नंबर के श्लोकों को निकाल कर दोनों स्तोत्रों को समान बना देवें ।
इन दोनों समस्याओं में से पहली समस्या ही श्वेताम्बर समाज को अपनानी होगी; क्योंकि वैसे करने पर ही भक्तामरस्तोत्र का पूर्णरूप उनके पास रहेगा । और उस दशा में दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भक्तामरस्तोत्र में कुछ भी अन्तर नहीं रहेगा ।"५०
इन वक्तव्यों में ४४ की जगह ४८ पद्यों को स्वीकार कर लेने की, श्वेताम्बर सम्प्रदाय को कुछ मुरब्बीपना के भाव (patronizing attitude) से दी गई सलाह के सुफियानापन के विषय में तो दो मत नहीं हो सकता । इतिहासवेत्ता इसे स्वीकार करें या न करें यह दूसरी बात है । पहली मुश्किल बात तो यह कि “गम्भीरतार०" आदि चार पद्य मूलत: अमौलिक हैं । इनका मानतुंग की शैली से सर्वथा दुर्मेल है । दूसरी बात यह कि मानतुंगाचार्य को वहाँ समवाय रूप से 'अष्टमहाप्रातिहार्य' अभिप्रेत था ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता । ऊपर हम देख चुके हैं कि कर्ता ने उत्तर की परिपाटी के ३४ अतिशयों में से चुनकर चार ‘अतिशयों' का ही वर्णन किया है, जिस परिपाटी का अनुसरण आवश्यकनियुक्ति आदि की परम्परा के अंतर्गत सिद्ध है । यदि मानतुंगाचार्य को स्तोत्र-करण में अष्टमहाप्रातिहार्य अभिप्रेत होते तो वह खुद ही आठों के वर्णन करने में हिचकिचाते नहीं । जो वस्तु मूलकर्ता की वैधानिक योजना में न रही हो, कल्पना अंतर्गत न हो, आदर्श में सन्निहित न हो, उसको उन पर आरोपित करके, जबरन थोप देने से, और ऐसा करने के लिए उनकी सर्वांग-सरस एवं संतर्पक कृति में नि:सार पद्यों को घुसेड़ देने से तो भारी असामंजस्य पैदा होता है । ऐसा करने का हमें, या किसी को मध्यकाल में भी, कोई अधिकार है या था, मानना बहुत मुश्किल है । इन अतिरिक्त चार पद्यों को स्वीकार कर लेने से किसी साम्प्रदायिक मान्यता को तो शायद “ठेस" नहीं पहुँचती, पर ऐतिहासिक प्रामाणिकता को, तथ्यवाद को तो गहरी चोट लग जाती है, भारी नुकसान हो जाता है ।।
स्थानकवासी सम्प्रदाय में अमरचन्दजी मुनि से भी पूर्व ४८ पद्यों वाला पाठ प्रचलित था । जामनगर से सन् १९१५ में स्थानकवासी मुनि गिरधरलालजी द्वारा संशोधित ज्ञानसागर में जो भक्तामरस्तोत्र है, उसमें दिगम्बर पाठ वाले ४ अतिरिक्त पद्य लिए गये हैं और इससे भी पहले जैनहितेच्छु एवं जैनसमाचार (अहमदाबाद) के ग्राहकों को गुजराती में अनुवाद सहित भेंट दिए गये, ४८ पद्य वाले भक्तामरस्तोत्र की छपी हुई, नकल की मिती सन् १९०९ है । ऐसे और भी दृष्टान्त होंगे । किन्तु केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, एवं इतिहास से अनजान रहनेवाले लोग जो कुछ करते हैं
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