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भक्तामर की पद्यसंख्या
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अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्योध्वनिश्शामरमासनं च ।।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।। इस पद्य की शैली व स्वरूप को देखते हुए ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह ईस्वी सातवीं शताब्दी पूर्वार्ध से पूर्व की रचना है ।
दाक्षिणात्य परम्परा में अष्ट-महाप्रातिहार्यों का उल्लेख सबसे पहले तिलोयपण्णत्ती (प्राय: ईस्वी छठी शताब्दी मध्यभाग) के अन्तर्गत मिलता है । वहाँ अशोकवृक्ष, छत्रत्रय, सिंहासन, गण, दुंदुभि, पुष्पवृष्टि और भामण्डल गिनाये गये हैं, चामर प्रातिहार्य का उल्लेख प्रकाशित आवृत्ति में छूट गया है। 'दिव्यध्वनि' के स्थान पर 'गणों' का (प्रमथों का) उल्लेख है, जो अन्यथा वसुदेवचरित में भी समवसरण के उपलक्ष में दिया गया है । तत्पश्चात् महामेधाविन् दार्शनिक स्तुतिकार स्वामी समन्तभद्र की स्तुतिविद्या (प्राय: ईस्वी ६००) के अन्तर्गत अष्ट-प्रातिहार्यों से सम्बद्ध पद्य मिलता है । यथा :
नतपीला सनाशोक सुमनोवर्ष भासित: । भामण्डलासनाऽशोक सुमनोवर्ष भासितः ।।५।। दिव्यैर्ध्वनिसितच्छत्रचामरैर्दुन्दुभिस्वनैः । दिव्यैर्विनिर्मितस्तोत्रश्रमदुर्दुरिभिर्जनैः ।।६।।
___ - स्तुतिविद्या ५-६ अत: यहाँ भामण्डल, आसन, अशोक (वृक्ष), सुमनवर्षा, श्वेतच्छत्र, दिव्यध्वनि, चामर और दुन्दुभि मिलाकर बाद की कल्पना के सभी अष्ट-प्रातिहार्यों का उल्लेख है ।
समन्तभद्र की कृतियों के पश्चात् क्रम में आती हैं पूज्यपाद देवनन्दी (कर्मकाल प्राय: ईस्वी ६३५-६८०) की रचनाएँ । दशभक्ति के नाम से प्रचलित संस्कृत पद्यमय रचनाएँ प्रभाचन्द्र ने अपनी क्रियाकलापटीका (ईस्वी १०२५-१०५०) के अन्तर्गत “पादपूज्य” अर्थात् ‘पूज्यपाद” की बताई हैं। परन्तु पूज्यपाद' विशेषण भूतकाल में देवनन्दी के अतिरिक्त भट्ट अकलंकदेव, और कुछ अन्य आचार्यों के लिए भी प्रयुक्त होने के कारण एवं देवनन्दी से सम्बद्ध उपलब्ध अभिलेखों तथा साहित्य सन्दर्भो में उनकी सुप्रसिद्ध कृतियों - जैनेन्द्रलक्षणशास्त्र और सर्वार्थसिद्धिटीका के उपरान्त समाधितन्त्र तथा इष्टोपदेश के अतिरिक्त कहीं भी दशभक्ति का उल्लेख न होने से इनकी कर्तृत्व-स्थिति प्राय: अनिश्चित है, ऐसा पं० नाथूराम प्रेमी का मंतव्य रहा था ।४३ दशभक्ति की शैली के परीक्षण से हम इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि देवनन्दी की अन्य रचनाओं से इनमें से कुछ, संगुम्फन और प्रसाद की दृष्टि से निराली एवं बेहतर हैं और इनमें से एकाध में स्पष्टत: देवनन्दी की निजी रीति के लक्षण, शब्दों का चुनाव, लगाव तथा उनका विशिष्ट एवं अपूर्व लाघव भी स्पष्ट रूप से देखने में आता है । हो सकता है, प्रभाचन्द्र के पास इन सब को पूज्यपाद की कृतियाँ मानने के लिए पारंपरिक आधार रहा हो । यद्यपि उन्होंने यह नहीं बताया कि ‘पादपूज्य' कौन थे, फिर भी मोटे तौर पर वहाँ देवनन्दी ही विवक्षित हैं, ऐसा मान सकते हैं ।
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