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________________ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र दशभक्ति के पद्यों में से 'निर्वाण भक्ति' के प्रारंभिक २० पद्य तो जिन वीर के पञ्चकल्याणक से सम्बद्ध है और जैसा कि प्रेमीजी ने कहा है, यह कोई पृथक् रचना होनी चाहिए" । और वहाँ बाद में आने वाले पद्य २१ से लेकर ३२ तक का हिस्सा ही वास्तवमें निर्वाणभूमि से सम्बद्ध है, जिसके शैली एवं छन्द पूर्वकथित वीरपञ्चकल्याणकस्तोत्र से दिखाई देती शैली-भिन्नता के आधार पर एवं विशिष्ट लाघव की उपस्थिति के कारण इसको देवनन्दी की रचना मान सकते हैं । अन्य कर्तृक पूर्वोक्त ‘महावीरस्तोत्र' में १४वें पद्य में कैवल्यप्राप्ति के बाद वैभार पर्वत पर जिन की प्रथम धर्मोपदेशना के उपलक्ष्य में अष्ट-प्रातिहार्यों का प्रादुर्भाव हुआ उल्लिखित है ।५ यथा छत्राशोको घोषं सिंहासनदुंदुभी कुसुमवृष्टिं । वर चामरभामंडल दिव्यान्यन्यानि यावायत् ।। शैली के आधार पर यह स्तोत्र सप्तम शतक से अर्वाचीन हो ऐसा नहीं लगता । निर्वाणभक्ति के अतिरिक्त नन्दीश्वरभक्ति के अंदर अष्ट-महाप्रातिहार्यों का उल्लेख है । यह भक्ति भी दो पृथक् (किन्तु शायद एक ही कर्ता की) रचनाओं का मिलाजुला (या जुड़ा गया) स्वरूप प्रकट करती है । इसमें एक से लेकर ३७ वें तक के पद्य में देवकल्पों से प्रारम्भ करके सकल लोक में रहे. अकृत्रिम (शाश्वत) जिनचैत्यों का ब्योरा दिया गया है, जिसमें नन्दीश्वरद्वीप भी आ जाता है और पद्य ३८ से लेकर अन्तिम पद्य ६० के अन्तर्गत पहले तो तीर्थंकरों के ३४ अतिशय और उसके पश्चात् अष्ट-महाप्रातिहार्यों का विवरण है । दोनों रचनाओं की शैली एक सी है; इतना ही नहीं, वह वीर पञ्चकल्याणकस्तोत्र की शैली से भी मिलती-जुलती है । सम्भव है, इन तीनों के कर्ता एक ही हों। अतिशयों और प्रातिहार्यों का वर्णन करने वाली यह दूसरी रचना भी अत्यन्त श्रवण-मधुर एवं सुललित है; और यह कृति भी प्राकमध्यकाल के बाद की हो, ऐसा महसूस नहीं होता । रचयिता निश्चय ही आला दर्जा के कवि रहे थे । यहाँ ३४ अतिशयों की वर्णना बहुत ही सरस एवं सुमंजुल पदावली में गुम्फित की गई है । इसके सभी पद्य यहाँ पेश करने का लालच रोककर केवल इनमें से आख़िर वाले तीन पद्य देकर बाद के अष्ट-महाप्रातिहार्यों से सम्बद्ध पद्य पूरे ही पूरे प्रस्तुत करेंगे । वरपद्मरागकेसरमतुलसुखस्पर्शहेममयदलनिचयम् । पादन्यासे पद्मं सप्त पुर: पृष्ठतश्च सप्त भवंति ।। एतेनेति त्वरितं ज्योतिर्यंतरदिवौकसामृतभुज: । कुलिशभृदाज्ञापनया कुर्वत्यन्ये समन्ततो व्याव्हानम् ।। स्फुरदसहस्ररुचिरं विमलमहारत्नकिरणनिकरपरीतम् । प्रहसितकिरणसहस्रद्युतिमंडलमग्रगामि धर्मसुचक्रम् ।। वैडूर्यसूचिर विटप प्रवालमृदुपल्लवोपशोभितशाखः । श्रीमानशोकवृक्षो वरमरकतपत्रगहन बहलच्छाय: ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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