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भक्तामर की पद्यसंख्या
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"अन्भितरस्स मणिमया कविसीसया, मज्झिमस्स रतनमया, बाहिरिल्लस्स हेममया हेव सुवनं । सव्वरतनमया दारा । तेसिं पागारानं तिएहति सव्व रतनमयी चेव तोरणा, पडागाहिं सए हि य विभूतिया। अभिंतरपागारस च बहुमज्झे चेतियरूक्खो तस्स हेट्ठा रतनमयं पेढं तस्स पेढस्स उवरिं चेतियरूक्खस्स हेट्ठा देवच्छंदओ भवति, तस्सब्भंतरे सीहासनं भवति, तस्सोवरिं छत्तातिछत्तं उभयो पासे य दो जक्खा चामर हत्था य सद्धा पुरतो धम्मचक्कं य पउमपतिट्ठितं ।।३३।।२४
__ और आवश्यकचूर्णि से कुछ वर्ष पूर्व जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यकभाष्य (प्राय: ईस्वी ५८५) में महावीर के पावा में हुए समवसरण की वर्णना में प्राकारादि के उद्भव और लोगों को एकत्र करने वाले दिव्यघोष के ध्वनित हो जाने के पश्चात् वहाँ सिंहासन, रक्ताशोक, (शक्र ग्रहित) छत्र और दो इन्द्र (ईशानेन्द्र, चमरेन्द्र) ग्रहित श्वेत चामरों का ही खास रूप से उल्लेख किया है, यथा
सीहासणे णिसण्णो रत्तासोगस्स हेटतो भगवं । सक्को सहेमजालं सयमेव य गेण्हते छत्तं दो होन्ति चामराओ सेताओ मणिमएहिं दण्डेहि ईसाणचमरसहिता धरेन्ति ते णातवच्छस्स ।।३५
- विशेषावश्यकभाष्य १९८५-८६ इन सबोंको देखते हुए तो लगता है कि उत्तर की निर्ग्रन्थ आगमिक परम्परामें तीर्थंकर के समीपवर्ती दृश्यमान विभूतियों पर जोर दिया गया है, और उनके प्रत्यक्ष पदार्थमान अतिशयों में से मोटे तौर पर पाँच या चार का उल्लेख होता रहा है । कहीं भी उनको प्रातिहार्य नहीं कहा गया है और समवायांग के आधार पर उसको श्वेताम्बर परम्परा में तो बुद्धातिशेष अतिशयों में ही माना जाता था, ऐसा कहा जा सकता है । इस प्रथा का अनुसरण बादमें निवृति कुल के शीलाचार्य कृत चउपन्नमहापुरिस-चरिय (ईस्वी० ८६९) में भी हुआ है । वहाँ महावीर के उपलक्ष में दी गई आर्या में समवसरण के कंकेल्लि (अशोक), छत्राधिछत्र और सिंहासन की बात करने के बाद भामंडल और यक्ष द्वारा ग्रहण किये हुऐ चामर का उल्लेख है ।३८
अब सवाल यह है कि अष्ट-महाप्रातिहार्यों का उल्लेख कब से हुआ, कहाँ हुआ और किसने किया ? उपलब्ध प्रमाणों से, उत्तर की निर्ग्रन्थ परम्परा में तो वह सबसे पहले (कोटिक गण की वज्री शाखा के) नागेन्द्र कुल के मुनि विमलसूरि की सुप्रसिद्ध कथात्मक रचना पउमचरिय (संभवत: ईस्वी ४७३) में उल्लिखित है । वहाँ महावीर के समवसरण के उपलक्ष में कहा गया है कि उस में अष्टमहाप्रातिहार्ययुक्त दो वक्षस्कार थे ।। अ ह दोण्णि य वक्खारा अट्ठमहापाडिहेर संजुता ।
- पउमचरिय २.२५१ वहाँ प्रातिहार्यों के नाम नहीं गिनाये परन्तु ऋषभदेव के केवलज्ञान उत्पत्ति के प्रसंग में आसन, छत्राधिछत्र, चामर, भामण्डल, कल्पद्रुम, देवदुन्दुभिघोष और पुष्पवृष्टि का उल्लेख किया है ।"
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