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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
प्रकाशित करने वाला तेजोमण्डल : यथा
आगासगतं चक्कं ६ आगासगतं छत्तं ७ आगासिताओ सेतवर चामराओ ८ आगासफालियामयं सपादपीढं सीहासनं ९ आगासगतो कुडभीसहस्स परिंडिताभिरामो इंदजझओ पुरतो गच्छति १० जत्थ जत्थ वि च नं अरहंता भगवंतो चिट्ठति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थ वि च नं तक्खणा देव सछन्नपत्तपुप्फपल्लव समाकुलो सच्छत्तो सज्झअरो सघंटो सपडागा असोगवरपातवो अभिसंजायति ११ इसि पिट्ठओ मउडट्ठाणम्डि तेजमंडलं अभिसंजायति अंधकारे वि च नं दस दिसातो
पभासेति १२३० इन सात अतिशयों में से 'चक्र' और 'इन्द्रध्वज' छोड़ कर शेष पाँच को बाद में अष्ट महाप्रातिहार्यो में समाविष्ट किया गया है । औपपातिक सूत्र (प्राय: ईस्वी ३००) में गुणशील-चैत्य में समोवसरित भगवान महावीर के दर्शनार्थ श्रेणिकपुत्र मेघकुमार के प्रस्थान का वर्णन है । वहाँ भी महावीर के सम्बन्ध में दिये गये लम्बे वर्णक में आकाशगत चक्र, छत्र, चामर, सिंहासन और आगे चलने वाले धर्मध्वज का उल्लेख है । यहाँ धर्मध्वज छोड़कर शेष तीन अतिशय की गणना बाद में महाप्रातिहार्यों में हुई है और वे सभी वही हैं जो समवायांग में भी अतिशयों के अन्तर्गत दिये गये हैं । (यहाँ अलबत्ता भामंडल उल्लिखित नहीं है) । इसी तरह आवश्यक-नियुक्ति (प्राय: ५२५) में भी चार विभूतियों का उल्लेख है—व्यंतर देवों द्वारा सर्जित अशोकवृक्ष, सपादपीठ सिंहासन, छत्र और चामरें, यथा -
चेइदुम पेट्ठछंदय-आसण छत्तं च चामराओ य ।
जं चंडण्णं करणिज्ज करंति तं वाणमंतरिया ।।३२ गाथा के प्रथम चरण के अन्तस्थ 'च' शब्द से 'धर्मचक्र' विवक्षित है ऐसा याकिनीसूनु हरिभद्रसूरि ने अपनी आवश्यक-लघुवृत्ति (प्राय: ईस्वी ७५०) में व्याख्या करते समय बताया है३३ ।
हरिभद्रसूरि के पूर्व आवश्यकचूर्णि (प्राय: ईस्वी ६०० से ६५०) में भी महावीर के समवसरण के उपलक्ष में वही चार अतिशय और पाँचवीं विभूति के रूप में धर्मचक्र गिनाया गया है :
"इह पुण इमं नाणत्तं जाव सामी न पावति ताव रत्तिं चेव देवेहिं तिन्नि पागारा कता अंतो मज्झे बाहिति, अभ्यंतरं वेमानिया सव्व रतनामयं नानामणिपंचवन्नेहिं कविसीसएहिं मज्झिमं जोतिसिया सोवनं रतनकविसीसगं बाहिरं भवनवासी ता च्यतं हेमजंबूनद कविसीसगं अवसेसं जं वातवि उव्वने वरिसनं पुप्फोवगारो च धूवदानं च तं वंतरा करेंति असोगवरपातवं जिन उच्चताओ बारसगुणं सक्को विउव्वति ईसानो उवरिं छत्तात्तिछत्तं चामरधरा च, बलिचमरा असोगहेट्ठओ पेढं देवछंदगे सीहासनं सपादपीठं फालियापयं धम्मचक्कं च पउम पतिट्ठियं ।"
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