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________________ भक्तामर की पद्यसंख्या यकॉबी जी के सामने दुर्गाप्रसाद शास्त्री द्वारा संपादित भक्तामर स्तोत्र ( ईस्वी १८९६) था, और वहाँ शास्त्री जी द्वारा दिये गये दिगम्बर पाठ के चार अतिरिक्त पद्य और उस पर की गई टिप्पणी भी उन्होंने ज़रूर देखी होगी । कुछ भी कारण हो, यकॉबी महोदय ने उस पर कोई चर्चा नहीं की और जिन दो पद्यों को वे श्वेताम्बर पाठ में ( और इसलिए दिगम्बर पाठ में भी) प्रक्षिप्त मानते थे, उसकी विस्तृत प्रमाणयुक्त समीक्षा कापड़िया जी ने उसी ग्रन्थ में अपनी विस्तृत प्रस्तावना में की थी, और उसको भ्रान्त ठहराया था, जिसका उल्लेख ज्योतिप्रसाद जी ने नहीं किया है । ( वस्तुतया ज्योतिप्रसाद जी ने किसी भी कारणवश, पुस्तक सामने रहते हुए भी, कहीं भी प्रा० कापड़िया के मंतव्यों का उल्लेख नहीं किया है । ठीक इसी तरह महामहोपाध्याय दुर्गाप्रसाद शास्त्री के अवलोकनों की भी उपेक्षा की है ।) दिगम्बर अनुश्रुतियाँ विशेषकर १७ वीं शताब्दी में हुए ब्रह्मचारी रायमल्ल एवं विश्वनाथ भट्टारक की रचनाओं में गुँथी हुई हैं । इनमें ऐसे कौन से मूल्यवान ऐतिहासिक तथ्य थे जो न देखने से यकॉबी महोदय फ़ायदा से फारिग हो जाते ? जिस युग में यकॉबी महाशय ने इस सम्बन्ध में लिखा उस युग में दिगम्बर स्रोतों में से अधिकतर अप्रकाशित थे । और यदि उन्होंने प्रातिहार्यों के अतिरिक्त चार पद्यों जो विविध गुच्छक मिलते हैं वह सब देखा होता तो वे क्या कहते, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है ! इस “ ४४ या ४८ पद्य" वाली बहस का केन्द्र रहा है अष्ट- प्रातिहार्य । केवल चार ही महाप्रातिहार्य होना अयुक्त है और पूरे आठ होने ही चाहिए ऐसा आग्रह रखने से पहले इस पहलू पर गहराई से गवेषणा करना अपेक्षित था । लेकिन निर्ग्रन्थों के दोनों सम्प्रदाय एवं निर्ग्रन्थेतर विद्वानों ने भी, इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । आषाढ़ी अमावस्या की बादल छाई, काजल - गहरी, पवनरहित रात में, ईमान के आसरे ही मध्य समंदर में चले जाते जहाज जैसी हालत इन सब विद्वानों के विधानों की मालूम होती है । इस विचित्र स्थिति को देखकर इस विषय पर विस्तार से यहाँ जांच करना अपने आप आवश्यक बन जाता है । ३७ निर्ग्रन्थ प्रतिमा- विधान के बेजोड़ अभ्यासी, महामनीषी ( स्व ० ) डा० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने आगमिक, साहित्यिक, और पुरानी जिन प्रतिमाओं में तक्षित प्रातिहार्यो के आविर्भाव के पहलुओं पर जो विचार किया है, उसका हम यहाँ आगे आने वाली चर्चा में यथास्थान उल्लेख करते रहेंगे । चर्चा का आरंभ श्रुत साहित्य में अष्ट- प्रातिहार्यों में रही स्थिति से करेंगे । स्थानांगसूत्र (वर्तमान संकलन प्रायः ईस्वी ३५० या ३६३) में तो आठवें स्थान पर अष्टमहाप्रातिहार्यों का कोई उल्लेख नहीं है । स्थानांग के समकालिक समवायांगसूत्र में ३४ वें स्थान पर तीर्थंकरों के महिमा सूचक ३४ अतिशेष या अतिशय तो गिनाये गये हैं, पर वहाँ भी अन्यत्र ८ वें स्थान पर अष्ट-प्रातिहार्यों का ज़िक्र नहीं । उन ३४ में से जिनको बाद में 'देवकृत' में गिना गया है ऐसे सात 'अतिशय' द्रव्यमय हैं, जैसे कि आकाशवर्ती चक्र, छत्र, श्वेत चामर, आगे चलने वाले सहस्र - पताका मंडित इन्द्रध्वज, और जहाँ-जहाँ तीर्थंकर ठहरते या विराजमान होते थे वहाँ पादपीठयुक्त सिंहासन का प्राकट्य तथा यक्षों द्वारा सर्जित पुष्प पत्र समाकुल अशोकवृक्ष, एवं अंधकारों में दसों दिशाओं को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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