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________________ ३६ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र जैन विद्वानों के मंतव्यो को लक्ष में लिया ही नहीं । क्या ये सब महानुभाव ‘विद्वान्' नहीं थे ? “गम्भीरतार०" वाले को छोड़कर और सभी चार विशेष पद्यों वाले गुच्छकों को दिगम्बर मनीषियों ने सही माने में कृत्रिम करार दिया और ऊपर हम देख आये कि कापड़िया निर्देशित एवं साराभाई वाला चौथा गुच्छक भी इतना ही बनावटी है । पर “गम्भीरतार०" से शुरू होने वाले चार पद्यों को बिना परीक्षण-विश्लेषण, केवल अहोभाव से, और वस्तुत: इसका विशेष प्रचार होने से मौलिक माना गया; और यहाँ ऐसे गुण भी उसमें आरोपित किये गए हैं जो उसमें दिखाई भी नहीं देते तथा उनको असलियत का प्रमाणपत्र भी दिया गया । हमारी समझ में यह विशेष प्रचलित गुच्छक भी उतना ही बनावटी है जितना और चार । वह कैसे ? पहली बात तो यह है कि इनमें विशिष्ट प्रकार के छेकानुप्रास (जैसे कि 'घोषण घोषक:') आदि प्रकार के अलंकार की उपस्थिति । इसके लगाव की प्रवृत्ति बहुधा मध्यकालीन ही है । मानतुंग के हर पद में नर्तन दिखाई देता है जबकि यहाँ “मंदार सुन्दर नमेरू सुपारिजात' जैसे एकाध-दो मध्यम कक्षा के मंजुल चरण को छोड़कर बाकी सब साधारण कोटि के हैं। उनमें , कान्ति, और मनोहारिता का प्राय: अभाव ही है । इसके अलावा “सन्तानकादि कुसुमोत्कर वृष्टिरुद्धा,” या “दिव्यादिव: पतति ते वचसां ततिर्वाः' जैसे पदों में तो कोई रसात्मकता दिखाई नहीं देती । और भी देखा जाय तो “लोकत्रय द्युतिमतामाक्षिपन्ती' में तो स्पष्ट ही आयास का भास होता है; तो “खे दुन्दुभिर्न दति ते यशस: प्रवादी” और “सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्या:" में तो माधुर्य की जगह कटुता का स्वाद मिलता है और “भाषास्वभाव प्रमाण गुण प्रयोज्य:" तो काव्यगुणपूत चरण न होकर किसी दार्शनिक ग्रन्थ का सूत्र हो, ऐसा आभास देता है ! इन सब में छन्द का स्वाभाविक प्रवाह, जो मानतुंग के मौलिक पद्यों में है, कहीं दिखाई नहीं देता । मानतुंग के पद्यों की सहज-सुन्दर गुम्फन प्रकट करने वाली सुरम्य, प्राञ्जल एवं प्रासादिक प्रौढ़ि के सामने इन चार पद्यों की शैली बिल्कुल ही अलाक्षणिक और साधारण सी दिखाई देती है । दुर्गाप्रसाद शास्त्री ने उन पद्यों को यथार्थ ही “मणिमालान्तर्गत कांच के टुकड़े' करार दिया है । इन पद्यों के आगे और पीछे रहे मौलिक पद्यों को देखते हुए यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है । महाभाग ज्योतिप्रसादजी द्वारा इन चार विशेष पद्यों को दी गई अंजलि हमें तो सार्थक नहीं लगती । वे चार पद्य मानतुंग के काव्यों के साथ रखने के काबिल नहीं हैं । उनमें मानतुंगाचार्य की प्रतिभा कहीं भी दिखाई नहीं देती । इस विषय को लेकर ज्योतिप्रसाद जी को एक शिकायत यकॉबी आदि पाश्चात्य विद्वानों के प्रति भी रही है । आपने लिखा है : “जैकोबी [sic] प्रभृति यूरोपीय प्राच्यविदों को ४४ श्लोकी श्वेताम्बर पाठ ही तथा तत्सम्बन्धी अनुश्रुतियाँ ही उपलब्ध हुई—उनके सामने ४८ श्लोकी दिगम्बर पाठ तथा तत्सम्बन्धी अनुश्रुतियों का विकल्प ही नहीं था, अतएव उनका भक्तामर विषयक ऊहापोह का आधार श्वेताम्बर मान्यताएँ ही रहीं । जैकोबी [sic] ने दिगम्बर पाठ के उन अतिरिक्त चार पद्यों पर तो कोई विचार किया ही नहींवे उनके सामने थे ही नहीं-श्वेताम्बर पाठ के भी श्लोक ३९ और ४३ (दिगम्बर पाठ ४३ और ४७) को भी प्रक्षिप्त अनुमान किया । विद्वान् के मतानुसार वे मानतुंग द्वारा रचित नहीं हो सकते और मूल रचना में पीछे से जोड़ दिये गये लगते हैं, इस प्रकार मूल भक्तामरस्तोत्र ४२ श्लोकी रह जाता है।"२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002107
Book TitleMantungacharya aur unke Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1999
Total Pages154
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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